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अन्योन्याभाव का लक्षण :
न्यायरत्नसार : तृतीय अध्याय
੩.
सूत्र - पर्यायात्पर्यायान्तर व्यावृत्तिरन्योन्याभावः सादिः सान्तश्च ।। ७२ ।।
व्याख्या - एक पर्याय से जो दूसरी पर्याय की भिन्नता है वह अन्योन्याभाव है। इसका दूसरा नाम इतरेतराभाव है। एक परमाणु दूसरे परमाणु से एक पुस्तक दूसरी पुस्तक से जो भिन्न- अलगप्रतीत होती है यह अन्योन्याभाव के कारण ही प्रतीत होती है। इसका तात्पर्य यही है कि पुद्गल की एक पर्याय का दूसरी पर्याय रूप नहीं होना, यही अन्योन्याभाव है। यह सादि और सान्त होता है ॥ ७२ ॥
अत्यन्ताभाव का लक्षण :
पुत्र-ज्या व्यावृशिरस्यन्ताभावोऽनादिरनन्तश्च ॥ ७३ ॥
व्याख्या - त्रिकाल में भी एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य रूप नहीं होता, गही अत्यन्ताभाव है । यह अत्यन्ताभाव अनादि और अनन्त होता है। जीव द्रव्य का त्रिकाल में भी पुद्गल द्रव्य रूप और पुद्गल का त्रिकाल में भी जीब द्रव्य रूप परिणमन जो नहीं होता है, वह अत्यन्ताभाव इन दोनों में होने के कारण नहीं होता है ॥७३॥
| तृतीय अध्याय समाप्त ।