________________
३२।
वनरार : ती भासाय
ज्ञान है, उससे विरुद्ध सम्यग्ज्ञान है । उसका सहचर सम्यग्दर्शन है, उसकी अनुपलब्धि से मिथ्याज्ञान का अनुमान किया गया है ।। ६७ ।।
शा-हमने इतने इस पूर्वोक्त कथन से यह तो समझ लिया है कि साध्य दो प्रकार का होता है एक विधिरूप एक प्रतिषेधरूप । इसी प्रकार हेतु भी दो प्रकार का होता है-एक उपलब्धिरूप और दुसरा अनुपलब्धिरूप । इनमें उपलब्धिरूप हेतु विधिसाध्य का और प्रतिषेधसाध्य का दोनों का साधक होता है । इसी प्रकार से अनुपलब्धिरूप हेतु भी विधिसाध्य और प्रतिषेधसाध्य का साधक होता है । परन्तु यह समझ में नहीं आ रहा है कि विधि शब्द का और प्रतिषेध शब्द का वाच्यार्थ क्या है ?
सूत्र-उत्तर—भावरूपो विधिरभाषापरच निषेधः ।। ६ ।। अर्थ-भावरूप विधि अंश होता है और अभावरूप निषेधांश होता है ।। ६८ ।।
व्याख्या-जितने भी पदार्थ हैं वे राब वाञ्चित् सन्स्त्रम्प हैं और कथंचित् अमत्स्वरूप हैं। इनमें जो सदंण है वह विधिरूप है और जो अमदंश है बन्द प्रतिषेधस्वरूप है। कथंचि
है, वह प्रतिषेधस्वरूप है । कथंचित् शब्द का अर्थ किसी अपेक्षा है। इस तरह पदार्थ में भावरूपता--विधिरूपता और प्रतिषेध रूपता- अभावरूपता किसी अपेक्षावश कही गई है, एक ही अपेक्षा से नहीं, ऐसा जानना चाहिये ।। ६८ ।। अभाव के प्रकार :
सूत्र-अभावश्चतुविधः प्रागभावप्रध्वंसाभावान्योन्याभावात्यन्तामावभेदात् ॥६९।।
अर्थ-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव के भेद से अभाव चार प्रकार का कहा गया है ॥६६॥ प्रागभाव का लक्षण :
सूत्र-विवक्षितपर्यायाविर्भावरिक्तोऽनादि सान्तस्तस्योत्पतेः प्रागुपादानपरिणामः प्रागभायः ७०
व्याख्या विवक्षित पर्याय की उत्पत्ति से रहित, जो उपादान परिणाम है वही उसकी उत्पत्ति के पहिले उसका प्रागभाव है । मुत्तिका से जब तक घट नहीं बनता है तब तक घट का वह मृत्तिका प्रागभाव रूप कही जाती है । यह मृत्तिका ही घट का उपादान परिणाम है। क्योंकि मृत्तिका ही घटरूप से परिणमित हुई है। यह प्रागभाव अनादि और सान्त होता है। घट' के उत्पन्न होते ही उसका प्रागभाव नष्ट हो जाता है और जब तक घट उत्पन्न नहीं होता है तब तक अनादि से उसका प्रागभाव चला आता है ।।७०|| प्रध्वंसाभाव का लक्षण :
सूत्र-भूत्वाऽभवनं सायनन्तः प्रध्वंसाभावः ॥ ७१ ॥
व्याख्या--कार्य का उत्पन्न होकर के फिर उस रूप में वर्तमान नहीं रहना, इसका नाम प्रध्वंसाभाव है । यह प्रध्वंसाभाव सादि और अनन्त होता है । जब मृत्पिण्ड से घट उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है तब वह कपालमाला के रूप में दृष्टिगोचर होता है। यही घट की कपालमाला के रूप में जो पर्यायान्तरिता हुई है वहीं घट का प्रध्वंसाभाव है । यह सान्त होकर अनन्त रहता है । घट के फूट जाने पर फिर वही घड़ा नहीं बनाया जा सकता ॥७१।।
-
-
-.
-.*