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न्यायरत्नसार : तृतीय अध्याय अर्थ-जो अनिश्चित हो, बादी को स्वीकृत हो, प्रतिवादी को स्वीकृत न हो, और प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से जो बाधित न हो, वही साध्य होता है।
व्याख्या--यह तो हम जान चुके हैं कि जिसे किसी आधार विशेष में सिद्ध करना होता है, उस का नाम साध्य है। यह साध्य तीन विशेषणों वाला होता है। इनमें एक विशेषण अनिश्चित है । अनिश्चित का अर्थ असिद्ध है जो अभी तक किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं हुआ है, उसका नाम असिद्ध है। गिद्ध साध्य नहीं होता है, असिद्ध ही साध्य होता है। बादी जिसे सिद्ध करना चाहता है उसका नाम अभिमत--इष्ट है। प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से जिसमें बाधा नहीं आती है, उसका नाम अबाधित है। अग्नि गर्म है इसमें गर्म साध्य प्रत्यक्ष है । अतः यह साध्य कोटि में नहीं आता है । आत्मा नहीं है। यह "नहीं है" साध्य वादी को अनिष्ट है अतः यह भी साध्य नहीं हो सकता है। इस समस्त कथन का निष्कर्ष यही है जो संदिग्ध हो, विपर्यस्त हो और अनध्यवसित हो, वही साध्य होता है तथा जो माध्यकोटि में रखा जाने उसे अबाधित होना चाहिये और बादी को मान्य होना चाहिये ॥ १४ ।। साध्य सम्बन्धी नियम :
सूत्र--व्याप्ती धर्म एव साध्यमनमाने तु सद्विशिष्टो धर्मी ।। १५ ।।।
अर्थ-व्याप्ति में--व्याप्ति-ग्रहण काल में--तर्क प्रमाण में --धर्म ही साध्य होता है, साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी साध्य नहीं होता। साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी साध्य तो अनुमान काल में ही होता है।
व्याख्या–पर्वतादिक रूप आधार विशेष में अग्न्यादि रूप साध्य को सिद्धि करना यह काम अनुमान याप्ति-तकं--का नहीं है। इसलिये व्याप्ति-ग्रहणकाल में-तर्क के समय में साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी को साध्यकोटि में नहीं रखा जा सकता है । नहीं तो व्याप्ति ही नहीं बन सकेगी। ऐसी व्याप्ति थोड़े ही हो सकती है कि जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ पर्वत अग्नि वाला होता है। रसोईघर को भी धुआ देखकर पर्वत रूप मानने का प्रसङ्ग प्राप्त हो जावेगा । अतः तर्क के साध्य में और अनुमान के साध्य में यही अन्तर आता है कि तर्क का साध्य सामान्य केवल लग्नि आदि रूप ही होता है और अनुमान का साध्य साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी होता है। यदि अनुमान का साध्य तर्क का साध्य, बना दिया जावे तो बात विलकुल बिगड़ जावेगी। जहाँ धूम है वहाँ अग्नि है यह कहना तो ठीक है। लेकिन जहाँ धूम है वहाँ अग्नि वाला पर्वत है, यह ठीक नहीं है । रसोईघर आदि भी अग्नि वाला हो सकता है ।। १५ ॥ धर्मी की सिद्धि का कथन :--
सूत्र-क्वचिद्विकल्पात्प्रमाणातदुभयतश्च मिसिद्धिः ॥ १६ ।।
अर्थ-धर्मी की सिद्धि कहीं पर विकल्प से. कहीं पर प्रमाण से और कहीं पर प्रमाण और विकल्प दोनों से होती है।
व्याख्या- अनुमान में साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी को साध्य कहा गया है इसलिये अनुमान के साध्य के दो भाग हो जाते हैं-एक धर्म और दूसरा धर्मी । इनमें "प्रसिद्धो धर्मी" के अनुसार धर्मी प्रसिद्ध होता है । इसी बात को इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने प्रकट किया है । इसमें यह समझाया गया है कि धर्मी की प्रसिद्धि तीन प्रकार से होती है-एक विकल्प से, दूसरे प्रमाण से और तीसरे दोनों से। इनमें विकल्पसिद्ध धर्मी में सत्ता-अस्तित्व या असत्ता-नास्तित्व ये दो ही साध्य होते हैं । जिस धर्मी में अस्तित्व और नास्तित्व के अतिरिक्त और कोई धर्म साध्य नहीं हो सकता है, वही विकल्पसिद्ध धर्मी कहा गया है। हर एक धर्मी