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न्यायरलसार : तृतीय अध्याय
१६ प्रमाणप्रसिद्ध होता है । यदि ऐसी ही बात मान ली जाय तो अनुमान व्यर्थ ही नहीं हो जाता किन्तु बह स्वयं का विरोधी भी हो जाता है, जैसे--"खर विषाणं नास्ति" खर विषाण नहीं है "अनुपलब्धेः" क्योंकि उसकी प्राप्ति-उपलब्धि नहीं है । यहाँ धर्मी खरविषाण है। उसका नास्तित्व साध्य है और अनुपलब्धि हेतु है। यहाँ यदि खरविषाण को प्रमाणप्रसिद्ध धर्मी मान लिया जावे तो इससे खरविषाण का अस्तित्व ही सिद्ध हो जाने से “खरविषाणं नास्ति अनुपलब्धेः" इसी अनुमान द्वारा फिर उसका नास्तित्व सिद्ध करना अपने ही अङ्ग के साथ अपना विरोध करना है। क्योंकि इसी अनुमान का एक अङ्ग खरविषाण का अस्तित्व सिद्ध करता है और दूसरा अङ्ग नास्तित्व । जो धर्मी केबल शाब्दिक रूप में अस्तित्व या नास्तित्व सिद्ध करने के लिये मान लिया जाता है वहीं धर्मी विकल्पसिद्ध कहलाता है। विकल्प सिद्ध धर्मों का अस्तित्व या नास्तित्व किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है । प्रमाण से जिसका अस्तित्व सिद्ध होता है वह धर्मी प्रमाणप्रसिद्ध धर्मी कहलाता है, जैसे-“पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमात्" यह पर्वत अग्नि वाला है क्योंकि इसमें धूम है । यहाँ पर्वत धर्मी प्रमाणप्रसिद्ध धर्मी है । क्योंकि वह प्रत्यक्ष से देखने में आ रहा है। उभयसिद्ध धर्मी में धर्मी का कुछ अंश प्रमाणप्रसिद्ध होता है और कुछ अंश विकल्पसिद्ध होता हैजैसे "शब्दोऽनित्यः कृतकत्वात्" शब्द अनित्य है क्योंकि वह कुत्रिम है । यहाँ समस्त ही त्रिकालवर्ती शब्द धर्मी हुए हैं सो वर्तमानकालिक शब्द तो श्रवण-प्रत्यक्ष से सिद्ध हैं और भूत-भविष्यत्काल का शब्द विकल्पसिद्ध है ।। १६ ।। परार्थानुमान का लक्षण :
सूत्र-स्वार्थानुमान प्रतिरोधक पक्षहेतु वचनात्मक वाक्यं परार्थानुमानमुपचारात् ।।१७।।
अयं-स्वार्थानुमान को शब्दों द्वारा कहना परार्थानुमान है । अनुमान यद्यपि ज्ञानस्वरूप कहा गया है पर यहाँ जो वाक्य को परार्थानुमान कहा है वह कारण में कार्य का उपचार करके कहा गया है । यह परार्थानुमान पक्ष और हेतु के कहने रूप होता है।
व्याख्या-अनुमान प्रमाण है । और प्रत्येक प्रमाण ज्ञानस्वरूप होता है। यहां परार्थानुमान को वचनरूप कहा गया है। सो वचन तो जड़रूप हैं-अतः वे प्रमाणरूप कसे हो सकते हैं ? सो इसी बात का उत्तर "उपचारात्" पद द्वारा दिया गया है। समझाने वाला दूसरे शिष्यादि को वचन द्वारा ही समझाता है और उसके कहने से वह अनुमान के स्वरूप को समझ लेता है । अतः शिष्यादिगत अनुमान ज्ञानरूप कार्य का कारण होने से वचन को कारण में कार्य के उपचार से अनुमानरूप कह दिया गया है ॥१७|| व्याप्ति का स्वरूप :.....
सूत्र-साध्याविनामावो व्याप्तिः ।।१८।। अर्थ--साध्य के साथ साधन का जो अविनाभाव है उसी का नाम ब्याप्ति है।
व्याख्या-साध्य-वह्नि आदि के बिना साधन-धूमादि हेतु का नहीं होना इसी का नाम साध्याविनाभाव है। क्योंकि जहाँ अग्नि नहीं होती है ऐसे जल हृदादि प्रदेश में धूम का अभाव होता है। एम बाधक प्रमाण के चल से इस व्याप्ति का निश्चय होता है ।।१८।। व्याप्ति के भेद :
सूत्र-अन्तर्याप्ति-बहिर्व्याप्तिभेदावियं द्विविधा ॥१६॥