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ज्यामरस्नसार : द्वितीय अध्याय
गया है । सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष में केवलज्ञान और विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष में अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान गृहीत हुए हैं । दूसरे लोगों ने पारमार्थिक प्रत्यक्ष को 'योगज' प्रत्यक्ष के नाम से कहा है ।
इन्द्रियादिकों की सहायता के विना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक रूपी--पुद्गल पदार्थों को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान है । इन्द्रियादिकों की सहायता के बिना दूसरे के मनोगत भाव को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान मनःपर्यय ज्ञान है । समस्त द्रव्यों को और उनकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान है। अवधि-मनःपर्यय ज्ञान को जो देशप्रत्यक्ष-विकल प्रत्यक्ष कहा गया है, उसका अभिप्राय ऐसा नहीं है कि इनमें निर्मलता केवलज्ञान की अपेक्षा कम है। निर्मलता तो सब में एकसी है परन्तु ये दोनों केवल रूपी द्रव्य को ही मर्यादा लेकर जानते हैं, अरूपी द्रव्यों को नहीं जानते हैं ।। १४ ।। अर्हन्तु में ही केवलज्ञान के सद्भाव का कथन :---
सूत्र--सर्वशत्याम्नानानवानहन्त शिवोपयात सगुस सर्वनः !! १५ ॥
अर्थकेवलज्ञान अर्हन्न परमात्मा में ही है, क्योंकि वे सर्वज्ञ हैं, तथा वे मर्वज्ञ इसलिये हैं कि वे निर्दोष हैं।
व्याख्या- यहाँ अहेत परमात्मा को पक्ष, केवलज्ञान को साध्य और सर्वज्ञत्व को हेनु बनाया गया है। क्योंकि साध्य परोक्ष होता है, परोक्ष साध्य की सिद्धि आगम और अनुमान प्रमाण से की जाती है। यहाँ सर्वज्ञ हेतु को लेकर केवलज्ञान का सद्भाव अर्हन्त परमात्मा में ही किया गया है. अर्हन्त परमात्मा में सर्वज्ञत्वरूप हेतु के सद्भाव की सिद्धि निर्दोषत्वरूप हेतु से की गई है, ये दोनों ही हेतु केवल व्यतिरेकी हेतु हैं । इसका विस्तृत अर्थ जानने के लिये न्याय रत्नावली टीका का अवलोकन करना चाहिये ।। १५ ।। निर्दोषता की सिद्धि :
सूत्र-प्रमाणाविरोधिवाक्त्वातत्रैव निर्दोषत्वम् ॥ १६ ।।
अर्थ-प्रमाण से अर्हन्त परमात्मा के वचनों में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं आता है, अत: वे ही निर्दोष है।
च्याया-अईन्त परमात्मा में ही केवलज्ञानशालिता है, यह बात सर्वज्ञत्वरूप हेतद्वारा साधित की है, सर्वज्ञता की सिद्धि उनमें निर्दोषत्वरूप हेतु द्वारा साधित की गई है तथा उनमें निर्दोषता है, यह बात प्रमाणाविरोधिवचनतारूप हेतु द्वारा साधित की गई है । उनके वचन में--आगम में किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती है, यही प्रमाणाविरोधिवचनत्व का अर्थ है ॥१६॥ प्रमाणाविरोधिवचनत्व की सिद्धि :--
सूत्र-तत्संमत तत्त्वस्य प्रमाणाबाधितत्वेन स एव प्रमाणाविरोधिवचनः ।। १७ ॥
अर्थ-अर्हन्त परमात्मा ही प्रमाणाविरोधिवचन वाले हैं, क्योंकि उनका जो अभिमत तत्त्व है, वह किसी भी प्रसिद्ध प्रमाण से बाधित नहीं होता है।
व्याख्या-इस सूत्र द्वारा अर्हन्त परमात्मा में प्रमाण से अविरोधी वचनता की सिद्धि की गई है। इस प्रकार हेतुओं की सिद्धि करने का अभिप्राय यह है कि यदि कोई स्वमत व्यामोह के वशवर्ती होकर