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न्यायरत्नसार : द्वितीय अध्याय अर्थ-अवाय ज्ञान का इतना दृढ़ हो जाना, जिससे कालान्तर में स्मृति हो सके. धारणा है।
व्यास्या-धारणा के बिना कालान्तर में किसी भी जाने हुए पदार्थ का स्मरण नहीं हो सकता है । इसीलिये कालान्तर में जानी हुई वस्तु की स्मृति वाराने में धारणा को हेतुभुत कहा गया है ।। १२ ।। दर्शन, अवग्रहादि का क्रम कथन :
सूत्र-ऋमिकाविर्भूतदर्शनावरणादि कर्मक्षयोपशमअन्यत्वेषामुक्तकमवत्वं नो थेविषयव्यवस्थामावः ॥ १३ ॥
अर्थ-अपने-अपने आवारक दर्शनावरणादि कर्मों का क्षयोपशम क्रमशः होता है और उसी क्षयोपशम के क्रमानुसार इन दर्शनादिकों की उत्पत्ति होती है. इसलिये इनमें ऋमिकता इसी प्रकार से मानी गई है, अन्यथा विषय-व्यवस्था नहीं बन सकती है।
व्याख्या-जिसका दर्शन नहीं होता उसका अवग्रह नहीं हो सकता है, अवग्रह ज्ञान का जो विषय नहीं हुआ है उसमें ईहा ज्ञान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है, ईहा ज्ञान की प्रवृत्ति हुए बिना अवाय नहीं हो ता है और अवाय के अभाव में धारणा रूप संस्कार नहीं हो सकता है । अतः पहले दर्शन, फिर अवग्रह, फिर ईहा. फिर अवाय और फिर धारणा इस प्रकार के क्रन से इनका होना होता है । इस प्रकार के क्रम का कारण अपने-अपने आवारक कर्मों के क्रमिक क्षयोपशम का होना है, दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से सत्त्व सामान्य विशिष्ट वस्तु को ग्रहण करने वाला दर्शन होता है । फिर मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवग्रहादि रूप ज्ञान होते हैं । यदि इस तरह से इनके उत्पन्न होने की व्यवस्था नहीं मानी जावे तो विषय-पदार्थ की व्यवस्था नहीं बन सकेगी और समस्ल सांसारिक व्यवहार छिन्नभिन्न हो जावेगा क्योंकि बिना दर्शन के अवग्रह, अवग्रह के बिना ईहा, ईहा के बिना अवाय और अवाय के बिना धारणा पदार्थ के विषय में कथमपि उद्भूत नहीं हो सकती है ।। १३ ॥ सभेद पारमार्थिक प्रत्यक्ष का कथन ::
सूत्र-द्विविधमतीन्द्रियं ज्ञानं पारमाथिकं प्रत्यक्षम् ॥ १४ ।।
अर्थ-जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से नहीं होता है किन्तु केवल आत्म द्रव्य की सहायता से ही होता है वही पारमार्थिक प्रत्यक्ष है । यह मकाल पारमार्थिक प्रत्यक्ष और विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार का कहा गया है।
व्याख्या--पारमार्थिक प्रत्यक्ष सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की तरह इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न नहीं होता है किन्तु आत्मा मात्र की सहायता से ही उत्पन्न होता है । हम लोगों को पारमार्थिक प्रत्यक्ष प्राप्त नहीं है। इस कारण इस कामभत उदाहरण नहीं दिया जा सकता है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रत्येक ज्ञान स्वरूप से प्रत्यक्ष है और यही स्वानुभव पारमार्थिक प्रत्यक्ष का उदाहरण कहा जा सकता है। क्योंकि पदार्थों के जानने के लिये छद्मस्थ संसारी जीवों की आत्मा को इन्द्रियादिकों की सहायता लेनी पड़ती है। लेकिन अपने ज्ञान को जानने के लिये इन्द्रियादिकों की सहायता नहीं लेनी पड़ती है। यह पारमार्थिक प्रत्यक्ष सकल और विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार का कहा
१. ज्ञानस्य वाह्यापिक्षयत्र वैशद्यादेशोदेवः प्रणीत, स्वरूपापेक्षया सकलमपि ज्ञानं विशदमेव रव-संवेदन ज्ञानाम्ना राव्यवधानाम् ।
-लघीयस्त्रय दीकायाम् ।