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न्यायरत्नसारः द्वितीय अध्याय
ऐसी कुतर्कणा कर बैठे कि ये प्रदत्त हेतु स्वरूपासिद्ध हैं तो इसके लिये हेतुओं को साध्य बनाकर पूर्वोक्त रूप से भिन्न-भिन्न हेतुओं द्वारा उनकी सिद्धि की गई है। । १७ ॥ कवलाहार और केवलज्ञान में अविरोधता :---
सूत्र-कपलाहारवस्पेन नाहतोऽसर्वज्ञत्वं तयोरविरोधात् ।। १८ ॥
अर्थ-कवलाहारी होने से अर्हन्त परमात्मा में सर्वज्ञता नहीं बनती है सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कवलाहारिता भी वहाँ रहे और सर्वज्ञता भी वहाँ रहे, इसमें कोई विरोध नहीं है ।
भ्याख्या-दिगम्बर संप्रदाय वाले केवली को कवलाहारी नहीं मानते हैं, श्वेताम्बर संप्रदाय वाले मानते हैं । अतः इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने यह सिद्ध किया है कि कवलाहारी होने से उनमें असर्वशता नहीं आ सकती है
कती है, क्योंकि सर्वज्ञता का और कवलाहारता का आपस में कोई विरोध नहीं है। यदि विरोध माना जावे तो हमारे ज्ञान के साथ भी उसका विरोध मानना पड़ेगा ।। १८ ।।
। मितीयोऽध्यायः समाप्तः।
१. स त्वमेवासि निदोषी युक्तिशास्त्राविरोधियाक । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न बाध्यते ॥
-आप्तमीमांसायाम् ।