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न्यायरत्नसार प्रथम अध्याय
--- इष्ट वस्तु क्या है और अनिष्ट वस्तु क्या है, यह बतला देना ही प्रमाण का प्रयोजन है । यह प्रमाण का प्रयोजन तभी सिद्ध हो सकता है कि जब प्रमाण को ज्ञानरूप माना जाय । यदि प्रमाण ज्ञानरूप नहीं होता है तो यह बात निश्चित है कि उससे इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में उपादेय और हेयरूप वृद्धि नहीं हो सकती है। जब माणसे और कार और तिरस्कार कराने की बुद्धि उत्पन्न होती है, तो इसका अभिप्राय यही है कि वह प्रमाण ज्ञान रूप ही है, सन्निकर्षादि रूप नहीं है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। इस तरह ज्ञान ही प्रमाण क्यों है, सन्निकर्षादि प्रमाण क्यों नहीं है ? इस बात का इस सूत्र द्वारा उत्तर दिया गया है ।। २ ।।
र्षादिकों में प्रमाणता का निरसन
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सूत्र-स्वार्थनिर्णये साधकतमत्वविरहाद् घटादेरिव जडस्य प्रामाण्याभावः ॥ ३ ॥
अर्थ - जो जड़ होता है उसमें प्रमाणता नहीं होती है, जैसे- घटादि । घटादि पदार्थ जड़ हैं । इसलिये वे प्रमाणभूत नहीं हैं। जो रव और परसवार्थ के निर्णन करने में साधकतम होता है, प्रमाणता उसी में आती है. और जो स्व- अपने आपके निश्चय करने में और पदार्थ के निश्चय करने में साधकतम नहीं होता है, उसमें प्रमाणता नहीं आती है ।
व्याख्या - ऐसा नियम है कि जो अपने आपको नहीं जानता है वह पर-पदार्थ को कैसे जान सकता है ? सन्निकर्ष- इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध - चूंकि जड़रूप है, अतः घटादि की तरह वह न अपना निश्चायक होता है और न पर-पदार्थ का निश्चायक होता है। इसलिये स्व और पर के निर्णय करने में अक्षम -- अकरण होने से उसमें प्रमाणता का निषेध किया गया है । स्व और पर के निर्णय करने में साधकतम ज्ञान ही होता है, सन्निकर्ष नहीं क्योंकि वह ज्ञानरूप नहीं है, प्रत्युत जड़ा है। इसीलिये ज्ञान में प्रमाणता और सन्निकर्ष में अप्रमाणता कही गई है ।। ३ ।।
जड़ में साधकतमता का अभाव कथन :--
सूत्र - चेतनधर्मव्यतिरिक्तस्य सन्निकर्षादेः स्व-परनिर्णये स्वम्भादेरिव न साधकतमध्वम् ॥ ४ ॥ अर्थ--- वेतनधर्म से भिन्न होने के कारण सन्निकर्षादिकों में स्व और पर के निर्णय करने के प्रति स्तम्भ आदि की तरह साधकतमता नहीं है ।
व्याख्या -स्व और पर के निर्णय करने के प्रति जड़ में साधकतमता नहीं है ऐसा जो पूर्व सूत्र में कहा गया है उसी का समर्थन इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने किया है इसके द्वारा यह समझाया गया है कि सन्निकर्षादि जड़ इसलिये हैं कि वे चेतनधर्म से भिन्न है, जैसा कि चेतनधर्म से भिन्न स्तम्भ होता है, अतः चेतनधर्म से भिन्न होने के कारण स्तम्भ में जिस प्रकार जड़ता है, उसी प्रकार सन्निकर्षादि में भी जड़ता है। जहाँ जहाँ चेतनधर्म से भिन्नता होती है, वहाँ वहाँ जड़ता होती है। सन्निकर्ष इसी प्रकार का है, अतः उसमें साधकतमता नहीं आती हैं। ऐसा मानना चाहिये । यहाँ सन्निकर्ष में प्रमाणता का निषेध करने के लिये "वह स्व-निर्णय और पर का निर्णय करने में साधकतम नहीं है" ऐसा जो तृतीय सूत्र द्वारा हेतु रूप से कहा गया है सो यह हेतु प्रतिवादी - सन्निकर्ष प्रमाणवादी वैशेषिक को सिद्ध नहीं है, अतः यह असिद्ध है - सो इस प्रकार की आशङ्का को दूर करने के निमित्त यहाँ कहा गया है कि सन्निकर्ष स्व और पर के निर्णय करने में माधकतम दसलिये नहीं हो सकता है कि वह वेतनधर्म से व्यतिरिक्त हैअचेतन है । जो अचेतन होता है वह स्तम्भादि की तरह जब अपना ही निर्णय नहीं कर सकता है तो फिर वह पर का निर्णय कैसे कर सकता है ? ॥ ४ ॥