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न्यायरत्मसार (हिन्दी व्याख्या-सहित) प्रथमोऽध्यायः
श्री वर्द्धमानं गुणरत्न-दानं, गुणाकरं गौतममत्र नत्वा । बालोपकाराप करोमि सम्यक
श्री न्यायरत्नं मुनि घासिलालः ।।१।। अर्थ-ज्ञानादि गुणरूपी रत्नों को देने वाले श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र को, एवं ज्ञानादि गुणों के आकर (खानिरूप) मुनिजनों के नायक श्री गौतम गणधर को मन, वचन और काय की एकाग्रतापूर्वक नमस्कार करके जैन न्यायशास्त्र से अनभिज्ञ-अपरिचित-बालजनों को जनशास्त्र प्रतिपादित प्रमाण. प्रमेय आदि पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराने के निमित्त मैं मुनि घासीलाल इस न्यायरत्न की सम्यग् रूप से रचना करता हूँ।
व्याख्या–प्रस्तुत मङ्गलाचरण में अन्तिम तीर्थकर श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र को और उनके प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामी को नमस्कार किया गया है । मङ्गलाचरण करने का मुख्य उद्देश्य प्रन्थ-निर्माण करने में आगत विघ्नों का निवारण करना होता है तथा शिष्टाचार का पालन और कृतज्ञता का प्रकाशन करना भी होता है। प्रमाण का स्वरूप :
सूत्र-स्व-पर-व्यवसायि ज्ञानमबाधितं प्रमाणम् ॥ १॥ अर्थ स्व और पर का निर्दोष रूप से निश्चय करने वाला अबाधित ज्ञान ही प्रमाण कहलाता है।
व्याख्या हर एक पदार्थ का निर्णय प्रमाण से ही होता है। इसीलिये पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानने के लिये प्रमाण को कसौटी जैसा कहा गया है, प्रमाण यद्यपि भिन्न-भिन्न सिद्धान्तकारों ने भिन्न-भिन्न रूप से माने हैं, पर जैन दार्शनिकों ने एक स्व और पर के निश्चायक ज्ञान को प्रमाण माना है । स्व शब्द का अर्थ शान का स्वरूप, और पर शब्द का अर्थ ज्ञेय पदार्थ ज्ञान के द्वारा जानने योग्य पदार्थ है । इस तरह अपने आपको जानने वाला और पदार्थों का यथार्थ रूप से निश्चय करने वाला ज्ञान ही प्रमाण है ऐमा इस सूत्र का निष्कर्षार्थ है ॥१॥ ज्ञान को ही प्रमाण मानने में युक्ति :
नत्र–इष्टानिष्ट वस्तुपावान-हान क्षमस्वाज्ञानमेव प्रमाणम् ।। २॥ ___ अर्थ-इष्ट--सुख और सुख के साधन एवं अनिष्ट-दुःख और दुःख के साधन को क्रमशः प्राप्ति कराने में और परिहार कराने में ज्ञान ही समर्थ होता है। इसलिये ज्ञान ही प्रमाण है।