________________ 198 न्यायरत्न : न्याय रत्नावली टीका : षष्ठम अध्याय, सूत्र 37 पराजय की भावना नहीं है और प्रतिवादी गुर्वादिजन उसे स्वयं ही तत्त्वनिर्णय करा देने की शक्ति वाले हैं तथा जब वह वीतराग कथा तीन अंगों वाली होती है तो उसका तात्पर्य ईसा है कि शिष्यादि को अपने तत्त्वविषयक संदेह को दूर करने के लिए गुर्वादि के पास ही जाते हैं परन्तु गुर्वादिजन प्रयत्न करने पर भी उस शिष्य को तत्त्वनिर्णय करा देने में समर्थ नहीं होते हैं तो वहाँ पर सभ्य रूप तृतीय अंग की भी आवश्यकता होती है / यहाँ सभापति रूप चतुर्थ अंग की आवश्यकता इसलिए नहीं होती है कि इन दोनों शिष्य और गुर्वादिकों में शाठ्यकलह आदिरूप विवाद तो होता नहीं है इसलिए प्रयोजन के अभाव में इस चतुर्थ अंग की आवश्यकता नहीं प्रकट की गई है / तथा तत्त्वनिर्णीषु शिष्यादि जन जन केबलशानी के पास जाकर तत्त्वनिर्णय करता है-तब वहाँ पर भी पूर्वोक्त दो ही अंग होते हैं तीन नहीं। इस विषय को और भी अधिक विशद रूप से जानने के लिए अन्य ग्रन्थों को देखना चाहिए / क्योंकि वहां पर वादांगों का विस्ताररूप से वर्णन है / यह बालकोपयोगी ग्रन्थ है अतः विस्तार हो जाने के भय से हमने उसे यहाँ पर घचित नहीं किया है // 37 / / ॥छठवां अध्याय समाप्तः // न्यायरत्नावली टोका सहित न्यायरत्न समाप्त //