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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : षष्टम अध्याय, सूत्र ३०-३१
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यदि शरीर को ही आत्मा रूप माना जावे तो बाल शरीर और युवा शरीर में अवयवों के उपचय और अपचय को लेकर परस्पर में भिन्नता आ जाती है। अतः इस भिन्नता के कारण जिस प्रकार एक के द्वारा देखा हुआ पदार्थ दूसरे के द्वारा स्मृत नहीं होता है उसी प्रकार बाल्यकाल में देखी हुई वस्तु का स्मरण युवाकाल में नहीं होना चाहिए। परन्तु ऐसा होता तो है अतः आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व ही इन पूर्वोक्त युक्तियों से प्रसिद्ध होता है तथा गरीर में जितनी भी क्रियाएँ होती हैं वे रथ से चालन क्रिया में कारणभूत सारथी की तरह आत्मा के निमित्त को लेकर ही होती हैं । यदि आत्मा शरीर रूपी भवन के भीतर विराजमान न हो तो शरीर में हलन-चलन आदि रूप क्रिया नहीं हो सकती है। अतः इन सब अनेक प्रकार के कार्यों का सद्भाब ही आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता का कथन करता है।
___आत्मा चैतन्य स्वरूप वाला है इसलिए वह प्रमाता है संवेदनशील है। शरीर अचेतन है-अतः वह संवेदनशील नहीं है। ज्ञान, इच्छा, सुख-दुःख आदि भिन्न-भिन्न परिणामों में इसका परिणमन होता रहता है। इसलिए यह ज्ञानादि परिणामों वाला है, शुभ-अशुभ आदि कर्मों का यह कर्ता है और उनके फलों का भोक्ता है तथा इसका स्वभाव संकोच विस्तारयुक्त है इसलिए नामकर्म के उदयानुसार प्राप्त शरीर में इसके प्रदेशों क संकोच विस्तार हो जाता है। इसी कारण हाथी के शरीर में जाने पर इसके प्रदेशों का फैलाव हो जाता है और चोंटी के शरीर में जाने पर इसके प्रदेशों का संकोच हो जाता है। हर एक शरीर में एक जीव नहीं रहता है किन्तु भिन्न-भिन्न रूप से भिन्न शरीरों में जीव रहता है क्योंकि यह व्यापक नहीं माना गया है। पुद्गलमय पुण्यपापरूप से यह संसार अवस्था में युक्त बना रहता है तथा इसका स्वभाव कथंचिनित्य है क्योंकि इसका विनाश नहीं होता है । आत्मा के ये सब विशेषण अन्य योगव्यवच्छेदरूप हैं । अतः आत्मा चैतन्यस्वरूप है इस विशेषण से आत्मा को ज्ञान से भिन्न मानने वाले नैयायिक के मत का कथन निरस्त किया गया है । 'ज्ञानादि परिणामी' विशेषण द्वारा आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने वाले वेदान्तियों का सिद्धान्त दूर किया गया है । कर्ता एवं भोक्ता पद के द्वारा आत्मा में सांख्यों की पुष्करपलाश-कमलपत्र की तरह निलेपस्वरूपता की मान्यता दूर की गई है अर्थात् सोल्यों की ऐसी मान्यता है कि आत्मा कर्मों से लिप्त नहीं होता है, लिप्त तो प्रकृति ही होती है और फल का भोक्ता, 'अकर्ता निर्गुणो भोक्ता आत्मा कपिलदर्शने आत्मा होता है तथा प्रकृति ही कर्मों को करने वाली है, आत्मा नहीं। तब जैन दार्शनिकों की ऐसी मान्यता है कि कर्मों का कर्ता आत्मा ही है और वही उनके फलों का भोक्ता है, आत्मा गृहीत शरीर के बराबर है, व्यापक नहीं है। इस बात का कथन गृहीत शरीर परिमाण पद से किया गया है। अतः आत्मा व्यापक है सब जीवों के शरीर में एक ही आत्मा है भिन्नभिन्न आत्मा नहीं है ऐसा जो आत्मा को व्यापक मानने वाले नैयायिकों का सिद्धान्त है वह इस विशेषण द्वारा दूर हो जाता है। प्रति शरीर में आत्मा भिन्न-भिन्न है ऐसा जो कहा मया है बह आत्म अद्वैतवादी वेदान्तियों के सिद्धान्त को दूर करने के लिए कहा गया है। अदृष्ट का जो पौद्गलिकत्व विशेषण से युक्त किया गया है वह पुण्यपापरूप अदृष्ट को अपौद्गलिक मानने वाले नैयायिकों के मत को दूर करने के लिए कहा गया है ।। ३० ।।
सूत्र-गृहीतपुरुष-स्त्री-नपुंसक शरीरस्यात्मनः सभ्यग्ज्ञान क्रियाभ्यां कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः ॥३१॥
संस्कृत टोका-स्त्रपूर्वभवोपार्जित कर्मानुसारात् उपात्तपुरुषस्त्रीकलेवरस्यात्मनः जीवस्य सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रः कृतम्भकर्मक्षयः सकल शुभाशुभकर्मप्रध्वं सरूपो मोक्षो भवति तथा चोक्तमुत्तगध्ययने २८ अध्ययने 'नाणं च दंसणं चेव चरितां च तवो तहा, एवं मरगमणपत्ता लीवा गच्छति सोग्गई'