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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : षष्ठम अध्याय, नत्र ३०
सम्बन्ध में आत्मा को होता है अतः यह मानना चाहिए कि मैं सुस्त्री हूँ, और मैं दुःखी हूँ ऐसा जो अहं प्रत्यय होता है वह आत्माश्रित ही होता है ।
प्रश्न-यदि यह अहं प्रत्यय आत्माश्रित ही होता है तो आत्मा तो सदा विद्यमान ही रहती है इसलिये रात-दिन इस प्रत्यय को होते रहना चाहिए ? परन्तु ऐसा तो होता नहीं है अतः इसका कारण क्या है ?
__ उत्तर-यह शंका इसलिये ठीक नहीं है कि यह बिना विचारे की गई है। पहले आपको यह मालूम होना चाहिये कि आत्मा का लक्षण क्या है ?
प्रश्न-तो कहिये ना, आत्मा का लक्षण क्या है ?
उत्तर-आत्मा का लक्षण उपयोग है । इसका दूसरा नाम चेतना है। यह ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेद से दो प्रकार का कहा गया है । अहं प्रत्यय यह एक प्रकार का उपयोग है। कर्मों के क्षय और क्षयोपशम आदि की विचित्रता से इन्द्रिय, मन, आलोक आदि की सहायता मिलने पर उपयोगरूप अहं प्रत्यय उत्पन्न होता है। इसलिए यह अहं प्रत्यय आत्मा के सदा विद्यमान रहते हुए भी आत्मा में मदा उत्पन्न नहीं होता है।
प्रश्न--आपकी इस बात से तो आत्मा में आनायता का आरोप होना सिद्ध हो जाता है क्योंकि आत्मा का लक्षण जब उपयोग अनित्य है तो फिर लक्ष्य भी अनित्य ही सिद्ध होगा।
उत्तर-अंकुर की उत्पत्ति की अनित्यता को देखकर जिस प्रकार अंकुरोत्पादन शक्ति अनित्य नहीं मानी जाती है उसी प्रकार कर्मों के क्षय क्षयोपशमादि की विचित्रता से इन्द्रिय मन आदि के सहकार मिलने पर ही अहं प्रत्यय होता है इसलिए अहं प्रत्यय के अनित्य होने से आत्मा को अनित्य नहीं कह सकते । अतः इससे आत्मा में अनित्यता का आरोप नहीं होता है। इसी केंटक की शुद्धि के निमित्त 'अहं प्रत्यय वेद्यः ऐसा टीकाकार ने कहा है। अपने-अपने शरीरवर्ती यात्मा का अस्तित्व सिद्ध स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से होता है और पर शरीरवर्ती आत्मा का अस्तित्व सिद्ध अनुमान से होता है। अतः 'आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि' अहं सुखी अहं दुःस्त्री 'इस प्रकार के अहंकार प्रत्यय से उत्थ मानस प्रत्यक्ष से होती है। इस प्रकार के कथन पर जो किसी ने ऐसा आक्षेप किया है कि 'अहं गौरः अहं श्यामः' मैं गोरा हैं, मैं काला है "ऐसा अहं प्रत्यय तो शरीर के आश्रित भी होता है अतः इससे आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है" सो इसका उत्तर हम पीछे दे चुके हैं । तथा यह अहं प्रत्यय सदा नहीं होता है इसका भी कारण युक्तिपूर्वक हम समझा चुके हैं।
प्रश्न-यदि आत्मा को स्वतन्त्र न माना जावे और पृथिवी आदि पाँच भूतों से उद्भूत हुए शरीर को ही चैतन्यरूप आत्मा माना जावे तो क्या आपत्ति है ?
उत्तर-यदि आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया जावे और पंचभूतों से उत्पन्न हुए इस शरीर को ही आत्मा माना जावे तो चैतन्यरूप आत्मा से रहित हुए मुर्दे के शरीर में भो चतन्यरूप आत्मा की उपलब्धि मानना पड़ेगी परन्तु ऐसा तो किसी ने भी स्वीकार नहीं किया है, अतः शरीर से भिन्न आत्मा है ऐसा ही स्वीकार करना चाहिए।
प्रत्यभिज्ञान प्रमाण भी आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता का इस प्रकार से स्यापक होता है कि 'जिसे मैंने पहले देखा था उसे ही मैं अब छू रहा हूँ' यदि आत्मा नाम का कोई पदार्थ स्वतन्त्र नहीं होता तो आत्मा में जो इस प्रकार का एकत्व प्रत्यय होता है वह नहीं होना चाहिए ।