________________
१६२
न्यायरत्न : न्यायरस्नायली टीका: पाटम अध्याय, सूत्र ३१
स्त्रीणां मोक्षानभ्युपगन्तृ णां दिगम्बराणां मतं स्त्री पदेन निरस्तम् सम्यक् पदेन मिथ्यादर्शनादीनां मोक्षकारणत्व युदस्तम् कृत्स्नवार्मक्षयोपादेन च यत् किञ्चित् कर्मावशेष मोक्षरूपा सिद्धिर्न संभवतीति सुचितम् । ज्ञानादि विशेषगुणोच्छेदेनात्मनो मुक्ति मन्य मानस्य नैयायिकस्य मतं च निरस्तम् मोक्षावस्थायामात्मनो ज्ञानाद्यभावेन जडत्वापत्तेः ।
हिन्दी व्याख्या-अपने पूर्वभवोपाजितकर्म के अनुसार पुरुष अथवा स्त्री या नपुंसक के शरीर में वर्तमान जीव की जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के द्वारा समस्तकर्मों के सकल शुभाशुभरूष कर्मों के अत्यन्त क्षयरूप अवस्था है उसी का नाम मोक्ष है ।
प्रश्न--सूत्र में तो 'सम्यग्ज्ञान क्रियाभ्यां' ऐसा ही पद है फिर सम्यग्दर्शन को आपने कैसे ग्रहण किया ?
उत्तर-'सम्यग्ज्ञान' पद से सम्यग्दर्शन को ग्रहण किया गया है त्रयोंकि सम्यग्ज्ञान बिना सम्यग्दर्शन के नहीं होता है इन दोनों का आनाभाव सम्बन्ध है।
प्रश्न-सम्यक चारित्र को ग्रहण कसे किया ?
उत्तर-क्रियापद से सम्यकचारित्र को ग्रहण किया है क्योंकि मोक्षमार्ग के प्रकरण में क्रियापद से सम्मकुचारित्र ही गृहीत होता है।
प्रश्न-कहीं-कहीं तप को भी मुक्ति का मार्ग बहा गया है जैसा कि उत्तराध्ययन के २८ वै अध्ययन में कहा है सो उसे यहाँ पर क्यों नहीं कहा ?
उत्तर-तप चारित्र रूप ही होता है अतः उसका अन्तर्भाब चारित्र में ही हो जाता है । इसलिए उसे पृथक रूप से सूत्रकार ने नहीं कहा है ।
प्रश्न- यहाँ पर 'गृहीत पुरुष स्त्री नपुसक शरीरस्य इतने बड़े विशेषण की क्या आवश्यकता थी क्योंकि पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकः मनुष्य ही भठ्यावस्थावाला हुआ मुक्ति को प्राप्त करता है अतः 'तथा भन्यस्यात्मनः' इतना ही कह देना पर्याप्त था फिर इस प्रकार संकोच न करके इतने बड़े विस्तार की क्या आवश्यकता थी ?
उत्तर-मूत्र में जो इस प्रकार से विस्तार किया गया है वह दिगम्बर मत में 'द्रव्य स्त्री को मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है' कथित इस सिद्धान्त को हटाने के लिये किया गया है तथा कृत्रिम नपुंसक को मुक्ति लाभ करने का निषेध नहीं है वह तो अकृत्रिम नपुंसक को ही है इस बात को समझाने के लिए सूत्र में नपुंसक पद का न्यास हुआ है । 'कृत्स्न कर्मक्षय' पद से सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि थोड़ा-बहुत भी कर्म यदि क्षय होने से आत्मा में बाकी बचता है तो उसके सदभाव में आत्मा को मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है, तथा नैयायिकों ने जो ऐसा माना है कि आत्मा के ज्ञानादि विशिष्ट गृणों के नष्ट होने पर ही मुक्ति होती है सो ऐसा उनका यह सिद्धान्त ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार की मान्यता में आत्मा में जड़ता की प्रसक्ति प्राप्त होती है । ज्ञानादि विशेष गुण आत्मा के स्वरूप हैं और जब मोक्ष में इनका अभाव है तो इस प्रकार के मोक्ष की चाहना भला कहो तो कौन करेगा ।। ३१ ।।
सूत्र-तत्त्वनिर्णयेच्छु विजिगीषुकथाभेदात् कथा द्विविधा ॥३२॥ संस्कृत टीका-वृत्त्व निर्णयेच्छक विजिगीष काथा भेदान् द्विविधा कथा प्रतिपादिता ।
हिन्दो व्याण्या-कथा दो प्रकार की कही गई है एक तत्त्वनिर्णयेच्न की कथा और दूसरी विजिगीषु की कथा।