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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : षष्ठम अध्याय, सूत्र २४-२५
भावात् एवमेव पाचकादि शब्दबाच्ये पाचकाद्यर्थे तच्छन्दप्रवृत्ति निमित्तीभूतक्रियाविष्टत्वे सत्यव वाच्यन्वमवगन्तव्यमित्थं प्रकारं 'भूतः प्राप्तो नयः अभिप्राय एवंभूत इति व्युत्पत्तेः तथाविधक्रियानांविष्टमर्थन्त्वयं न निषेधति तत्र केवलं गजनिमीलिकाया एवावलम्बनात् ।। २४ ।।
अर्थ--जो नय ऐसा मानता है कि वही पदार्थ उस शब्द का वाच्य होता है कि जो उस शब्द की प्रवृत्ति की निमित्तभूतक्रिया से युक्त हो रहा हो, ऐसे भय का नाम ही एवंभूत नय है ।
हिन्दी व्याख्या-इस नय की मान्यतानुसार जितने भी शब्द अपने-अपने अर्थ के वाचक है दे सब प्रकृति धातु त्रिया और प्रत्यय के सम्बन्ध में निम्पन्न हुए हैं। अतः हर एक शब्द से किसी न किसी क्रिया का अर्थ अभिव्यक्त होता है। ऐसी स्थिति में जिस शब्द से जिस क्रिया का अर्थ या भाव प्रकट होता है उस क्रिया से समन्वित पदार्थ उस समय उस शब्द का वाच्य होता है ऐसे इस अभिप्राय को ही सूत्रस्थ एवंभूतं' पद प्रकरण के वश से सूचित करता है । अतः इस कथन से ऐसा अर्थ निकलता है कि जब इन्दनादि क्रिया से आलिङ्गित इन्दनादिरूप परमेश्वर्यादि का जिस काल में अनुभवन किया जा रहा हो- उसी काल में इन्द्ररूप अर्थ इन्द्र शब्द का वाच्य होता है, शेष समय में नहीं। और अन्य क्रिया के अनुभबन करने के समय में भी नहीं क्योंकि उस समय में वह विवक्षित इन्दनादि शब्द की प्रवृत्ति के निमित्तीभूत क्रिया की परिणति के अभाव वाला है। इसी प्रकार से पाचक आदि शब्दों का वाच्य पाचकादि रूप अर्थ तभी हो सकता है जब वह पाचक शब्दादि की प्रवृत्ति की निमित्तभूतक्रिया से युक्त हो जो इस प्रकार की क्रिया से युक्त नहीं होता है उसका यह निषेध नहीं करता है किन्तु उसकी ओर यहाँ केवल गजनिमीलिका माध्यस्थ्यभाव ही धारण कर लेता है ।।२४।।
सूत्र-अनैर्वभूतं वस्तु शब्दवाच्यतया निराकुर्वस्तु तदाभासः ।। २५ ॥
संस्कृत टोका-शब्दप्रवृत्तिनिमित्तीभूत क्रियाविहीनं वस्तव वानवं भूतशब्देन सूचितं भवति–अतः योऽभिप्रायः इन्द्रादिशब्दानां सर्वथा इन्दनादि क्रिया समन्वितं मन्तमेवार्थ वाच्यतया ङ्गीकरोति तद्विरहितं तु सर्वथाऽन्यसमयेऽपि तद्वाच्यतया तदर्थ प्रनिषेधति न तत्रोपेक्षावृत्ति दधाति नथाविधोऽभिप्राय एवं भूतनयाभासो भवति यथायदा पूरणक्रियारहित इन्द्रोऽस्ति तदा स पुरन्दरशब्दवाच्यो न भवितुमर्हति तदतिरिक्तसमयेऽपि इत्येवं रूपेणेन्द्रस्य पुरन्दरशब्दवाच्यत्व प्रतिक्षेपको विचार एवंभूतनयाभासो निगदितः ॥ २५ ॥
अर्थ-जो वस्तु जिस शब्द की प्रवृत्ति की निमित्तभूत क्रिया से युक्त नहीं है वह बस्तु शेष काल में भी उस शब्द के द्वारा वाच्य नहीं होती है अर्थात् अमुक क्रिया होने के समय को छोड़कर दूसरे समय में वह पदार्थ उस शब्द से नहीं कहा जा सकता है ऐसा जो सर्वथा एकान्त अभिप्राय है वही एवंभूतनयाभास है।
हिन्दी व्याख्या-यह तो पहले स्पष्ट ही कर दिया गया है कि एवंभूतनय जिस शब्द के द्वारा जिस पदार्थ को वाच्य कोटि में लाता है वह पदार्थ उस शब्द की प्रवृत्ति के योगक्रिया से समन्वित होता है। इस प्रकार के अभिप्राय से हम यही समझते हैं कि एवंभूतनय अपने विषय को ही प्रधानतया पुष्टि करता है, वह यह नहीं कहता है कि जो पदार्थ अमुक प्रिया से हीन है वह उस शब्द के द्वारा शेष समय में भी वाच्य नहीं होता है क्योंकि वह तो उस ओर केवल माध्यस्थ्यभाव ही रखता है परन्तु जो इसका आभास है वह इससे बिलकुल विपरीत विचार वाला होता है, इसी बात का ब-धन इस सूत्र द्वारा किया गया है । शब्द की प्रवृत्ति की निमित्तभूत क्रिया से जो वस्तुविहीन है, रहित है, वह अनैवंभूतवस्तु है ऐसी