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म्यामरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पाठम अध्याय, सुत्र २६-२७
वस्तु अन्य समय में भी उस शब्द द्वारा वाच्य नहीं होती है इस प्रकार का जो एकान्त अभिप्राय है वही एवंभूतनयाभास है । यह एवंभूतनयाभास एकान्त मान्यता को ही अपनाता है और अन्य नय के विषय का निराकरण करता है । यह कहता है जब इन्द्र नगर को ध्वस्त करने की क्रिया से रहित होता है तब पुरन्दर शब्द के द्वारा वह वाच्य नहीं हो सकता है अर्थात् शब्द नय की दृष्टि के अनुसार इन्द्र शक्र और पुरन्दर इन तीनों शब्दों का अर्थ एक इन्द्ररूप पदार्थ होता है । इन्द्र शब्द से भी इन्द्र अर्थ का बोध होता है, शक्र शब्द से भी इन्द्र अर्थ का बोध होत और गुगल र ए. ते मी. इन्द्र का बोध होता है परन्तु जब यह अपनी इस प्रकार की एकान्त मान्यता को समर्थित करता है तब यह शब्द नय की मान्यता निषिद्ध हो जाती है। अतः जो नय अपनी मान्यता का समर्थन करता हुआ अन्य नय को मान्यता पर कुठाराघात करता है, वही तदाभास है ॥२५।।
सूत्र-वाद्याश्चत्वारोऽर्थनयाश्चरमे त्रयश्च शब्दनयाः ।।२६।।
संस्कृत टीका- एषु नैगमादिषु सप्तनयेपु आद्या नैगम संग्रह व्यवहारर्जुसूत्राभिधाश्चतुः संख्यका नयो अर्थनिरूपणतत्परत्वात् अर्थनया व्यपदिश्यन्ते शेषाश्चरमे त्रयश्च शब्दसमभिरूदेवभूताख्यानयाः शब्दविशेषानेवाश्रित्य तद्वाच्यार्थ प्रतिपादनपरत्वात् शब्दनया व्यपदिश्यन्ते ।
हिन्दी व्याख्या---अर्थनय और शब्दनय का विभाग स्पष्ट करने के लिये सूत्रकार ने इस सूत्र का निर्माण किया है-इसके द्वारा यह समझाया गया है कि इन पूर्वोक्त सात नयों में जो आदि के नगम संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नब हैं वे सीधे रूप में अपने-अपने विषयरूप पदार्थ का प्रतिपादन करते हैं इसलिये इन्हें अर्थनय कहा गया है। तथा शब्द, समभिरूद और एवंभूत ये तीन अन्तिम नय शाब्द के आश्रित होकर अपने-अपने विषयभूत पदार्थ का प्रतिपादन करते हैं इसलिये इन्हें शब्दनय कहा गया है ।।२६।।
सूत्र-पश्चानुपूयं ते बहुविषयाः पूर्वानुपूर्व्या चाल्पविषयाः ॥ २७ ॥
संस्कृत टीका- पश्चानुपा-एवंभूतमारभ्य नगमान्तपरिगणनया चैते परिमितविषयत्वादल्पविषयाः तथाहि-नंगमनयस्तावन् प्रधानाप्रधानतया भावाभावात्मकयोधर्ममिणोमियोर्वा प्रतिपादन करोति । संग्रहनयस्तु सामान्य विशेषात्मकपदार्थस्य प्राधान्येन सत्तासामान्यमेव प्रतिपद्यते अतः संग्रहह्नयोपेक्षया नैगमनयो भूमविषयः संग्रहन स्तु परिमितविषयः । सत्तासामान्यविषयकः संग्रहनयः प्रतिपादितस्तदपेक्षया व्यवहारनयः सद्विशेषविशिष्टपदार्थप्रतिपादकत्वात् सद्विशेषप्रकाशकः कथितः अतो व्यवहारनयापेक्षया संग्रहनयः सत्तासामान्य विषयत्वात् प्रचुरविषयः व्यवहारनयस्त्वल्प विषयः । व्यवहारनयस्त्रिकालवर्तिसद्विशेषविशिष्टान् पदार्थान् व्यवहारपथमानयति, ऋजुसूत्रस्तु केवलं वर्तमानक्षणालिङ्गति पदार्थमेवावगच्छति । अतः ऋजुसूत्रनयापेक्षया ध्यवहारनयः प्रचुरबिषयः अजुसूत्रं त्वल्पार्थविषयकम् । कालादिभेदेन शब्दनयः स्ववाच्यं भिन्न-भिन्न प्रतिपादयति ऋजसूत्र तु तद्भदेनाप्यभिन्न प्रतिपादयति अतः कालादिभेदेन भिन्नार्थप्रतिपादकशब्दनयापेक्षया कालादिभेदेऽप्यभिन्नार्थ प्रतिपादकत्वात् ऋजसुवनयः महार्थः शब्दनयस्त्वमहार्थः । प्रतिपर्यायाचिशब्दस्यार्थभेदं समभिरूढनयः स्वीकरोति शब्दनयस्तु नवं मन्यते तो व्युत्पत्तिभेदेनेन्द्रादिपर्यायबाचि शब्दानां भिन्नार्थत्वाभ्युपगन्तसमभिरूढनयापेक्षया शब्दनयो महाविषयः समभिरूढनयस्त्वल्पविषयः । एवंभूतनयः शब्दप्रवृत्ति निमित्तीभूत क्रियासमन्वितमर्थं तत्तचन्दस्य वाच्यभंगी करोति, समभिमढनयस्तु शब्दप्रवृत्तिनिमित्तीभूतक्रियाकरणकालेऽपि तक्रियाशून्यकालेऽपि च तनन्दस्य वाच्यमर्थं स्वीकरोति अत एवंभूतनयापेक्षया समभिम्हनयो हि प्रभूतविषयः एवंभूतनयस्त्वल्पविषयः । इत्येवं रीत्योत्तरोत्तरनयापेक्षया पूर्वपूर्वनयानामधिकविषयत्वं पूर्वपूर्वनयापेक्षया चोत्तरोत्तरनयानामल्प