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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : षष्ठम अध्याय, मूत्र १४-१५
द्वारा धर्मास्तिकायादिक रूप द्रव्य भेदों को उनमें अन्तहित कर लेता है इसलिए इन दोनों में मत्तारूप एवं द्रन्यत्वादिरूप गामान्य को विषय करने का कारण द्रव्याथिकनयपना है ऐसा जानना चाहिए ॥१३॥
सूत्र-विशेषापलापी द्रव्यत्वादि सामान्यमात्रमन्वानोऽभिप्रायस्तदाभासः ॥१४॥
संस्कृत टीका-अपरसंग्रहनयस्वरूपं निरूप्यधुना तदाभासं निरूपयितुमुपक्रम्यते विशेषापलापीत्यादिना-तथा च विशेषान अपलपितुंशील इति विशेषापलापी-द्रव्यविशेषाणां धर्मास्तिकायादीनां गत्यादि निमित्तभूतानां कटककुण्डलादिनां च सुवर्णादि द्रव्य विशेषाणां अपलपनशीलो निराचक्षाणः केवलमवान्तरसत्तारूप द्रव्यत्वगृथिवीत्व सुवर्णत्वादिकं मन्वानः स्वीकुर्वाणो योऽभिप्रायः स तदाभासः-अपरसंग्रहाभासः 1 एतेन द्रव्यत्वमेवतत्त्वं तदतिरिक्तानां धर्मास्तिकायादीनामभावात् एवमेव सुवर्णत्वमेव तत्त्वं तदतिरिक्त काटककुण्डलादिपर्यायाणामनुपलम्भात् इत्येवमवान्तर सामान्यमेवाभ्युपागम्य तद्विशेषान् बिह नुवानो परसंग्रहाभासः ।।१४||
हिन्दी व्याख्या-जैसा कि अपरसंग्रहह्नय के स्वरूप वर्णन में प्रकट किया जा चुका है ठीक उससे विपरीत स्वरूपवाला अपरसंग्रहनयाभास है । अपरसंग्रहनय में अवान्तरसत्ता के द्वारा उसके विशेषों का संग्रह किया जाता है जैसा कि उसके स्वरूप कथन में प्रकट किया जा चुका है। उस कथन से यह हम समझ जाते हैं कि वह विशेषों का निराकरण नहीं करता है । किन्तु उनकी ओर उसकी दृष्टि में गौणता का भाव भरा रहता है । तब कि यह अपरसंग्रहाभास अदान्तर सामान्य का कथन करता हुआ उस सामान्य के आश्रयभूत व्यक्तियों का सर्वथा निषेध करता है जैसे-जब यह ऐसा प्रतिपादन करता है कि अवान्तर सामान्यरूप द्रव्यत्त्व या सुवर्गव ही मालिक है जगरो भिन मारिनकाथा टिक जो कि जीव
और पुद्गल की गत्यादिक क्रिया में उदासीनरूप से निमित्त हैं, नहीं हैं। इसी प्रकार सुवर्णत्व रूप अपरसामान्य ही वारतविक है उससे भिन्न जो उसकी कटककूण्डलादिरूप पर्यायें हैं, वे नहीं हैं। इस प्रकार से द्रव्यत्वरूप या सुवर्णत्वादिरूप अपर सामान्यों को केवल वास्तविक मानने वाला और उनके विशेषों का धर्मास्तिकायादिकों का निषेध करने वाला जो भी अभिप्राय बिशेष है वह सब इसी अपरसंग्रहनयाभास में परिगणित हो जाता है । अबशिष्ट टीकार्थ स्पष्ट है ।। १४ ॥
सूत्र--संग्रहेण संकलितसामान्यस्य भेदप्रभेदं विधाय व्यवहारपथमवतारकोऽभिप्रायदिशेषो व्यवहारः ॥१५॥
संस्कृत टोका-संग्रहेण परापरसंग्रहमयेन संकलितसामान्यस्य-सत्ता सामान्यस्याबान्तर सामान्यस्य च परापरसामान्यरूपस्य भेद प्रभेदं कृत्वायोऽभिप्रायविशेषस्तं लोकव्यवहारोपयोगिनं करोति स व्यवहारनय इति । नहि सामान्येन लोकव्यवहारः संचलति तत्र विशेषाणामेवोपयोगात् नहि वाह दोहादी कर्मणि अश्वत्वं गोत्वं नोपयोगि अश्वस्य गोश्च तत्रोपयोगात् । एवं च यत् सत् तद्रव्यं वा पर्यायोत्रा यद्रव्यं तत् जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं वा जीवद्रव्यं चेत्तत्किम् असरूपं स्थावररूपं वा सरूपं चेत्तत्कि द्वोन्द्रियरूपं पञ्चेन्द्रियरूपं वा पञ्चेन्द्रियरूपं चेत् तरिक संज्ञिरूपमसंज़िरूपं वेत्येवं रूपं भेद प्रभेदं कुर्वन् व्यवहारनयोतावत्पर्यन्तं गच्छति यावदस्य द्वितीय भेदाभावो भवति लोकव्यवहारस्य विशेषेणैव साध्यत्वात् नतु सामान्येन तत्रतस्यानुपयोगित्वात् ॥ १५॥
अर्थ-परसंग्रहनय और अपरसंग्रहनय के द्वारा विषयभूत बनाये हुए सत्ता सामान्य और जावान्तर सामान्य के जो अभिप्राय विशेष भेद प्रभेद करता हुआ उस भेद प्रभेद को लोकव्यवहार के लिए उपयोगी करता है ऐसा, वह अभिप्राय व्यवहारनय है ।। १५ ।।