________________
१७६
न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : षष्टम अध्याय, सूत्र १३
स्वभेदेषु च माध्यस्थ्यभावं भजमानो योऽभिप्रायः सोऽपरसंग्ग्रहः । यथाधर्मास्तिकायादीनामवयं द्रव्यत्वाभेदात् द्रध्यमिदं द्रव्यमिदमित्येवमभिन्नज्ञानाभिधानलक्षणलिङ्गेनानुमितस्य द्रव्यात्वा भेदस्य सद्भावात् । एवमपि चेतनाचेतनपर्यायाणामपि ऐक्यं पर्यायत्वाभेदात् अयमपि पर्यायः अयमपि पपय इत्येवमभिन्नज्ञानाभिधानस्वरूपलिजेनानमितस्य पर्यायस्वाभेदस्य सद्धावात । एतेन धर्मास्तिकायादि रुपद्रव्या पेक्षमाणः सत्तावान्तरद्रव्यत्वसुवर्णत्वादि सामान्य धर्ममात्राभ्युपगन्ता प्रतिपत्तुरभिप्रायोऽपरसंग्रह इति फलितम् । अत्रायमाशयो बोध्यःअशेष विशेषात्मक पर्यायाणां प्रधानतया सत्तामात्र प्रतिपादन द्वारा सम्माश्रेऽन्तर्भावणं परसंग्रहन यस्योद्देश्यं भवति, सत्तावान्तरधर्माणां द्रव्यत्वपृथित्व सुवर्णत्वादीनां प्रधानतया प्रतिपादन द्वारा धर्मास्तिकायादीनां द्रव्यविशेषभेदानां द्रव्यत्वाद्यघान्तरसामान्येऽन्तर्भावणमपरसंग्रहनस्योद्देश्य भवतीति एतदुभयोरपि सत्ताद्रव्यत्वादि सामान्य विषयकल्वेन द्रव्याथिक नयत्वमनवसेयम् ॥१३॥
अर्थ-द्रव्यत्वांदिकरूप अबान्तर सामान्य का विषय करने वाला और उन द्रव्यत्वादिरूप अवान्तर सामान्य के माथयभूत व्यक्तियों में विशेषों में माध्यस्थ्यभाव रखने वाला जो अभिप्राय है उसका नाम अपरसंग्रहनय है ।।१३।1
हिन्दी व्याख्या---जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के भेद से द्रव्य छह प्रकार का कहा गया है तथा जीव की नर-नारकादि रूप पर्यायों में और घट कुण्डलादि रूप मृत्तिकादि द्रव्यों की पर्यायों में वर्तमान क्रमशः द्रव्यत्व और पर्यायत्वरूप सामान्य को प्रधानरूप से स्वीकार करने वाला एवं अपने-अपने आश्रयभूत विशेषों में उदासीनता रखने वाला जो प्रतिपत्ता का संकल्प विशेष है उसका नाम अपरसंग्रहनय है । जैसे-धर्मास्तिकायादिक जो द्रव्य के भेद विशेष हैं उन सबमें इस नयवाले का ऐसा विचार रहता है कि ये सब द्रव्यत्वरूप अवान्तर सामान्य की अपेक्षा एक हैं जिस सामान्य का क्षेत्र विस्तृत होता है वह परसामान्य कहा गया है। जैसे सत्ता और परसामान्य की अपेक्षा जिसका क्षेत्र संकुचित होता है वह अपरसामान्य कहा गया है, जैसे द्रव्यत्व पृथिवीत्व सुवर्णत्व आदि । अपरसंग्रहनय इसी अवान्तर सामान्य को विषय करता है अपर सामान्य का नाम ही अवान्तर सामान्य है।
- इस प्रकार से इतना अभिप्राय हृदयंगम करके इस सूत्र को समझना चाहिए । धर्मास्तिकायादिकों में द्रव्यत्वरूप अवान्तरसामान्य रहता है अतः इस अवान्तर सामान्य की अपेक्षा ये एक हैं इसी सामान्य को लेकर धर्मास्तिकायादिकों में अट् भी द्रध्य है यह भी द्रव्य है इस प्रकार की एकाकार प्रतीति होती है और द्रव्य द्रव्य इस शब्द के द्वारा उनमें वान्यता आती है अत: इस प्रकार की प्रनीति से
के द्वारा वाच्यता से अनुमित गुच्यत्व का अभेद उनमें वतमान रहता है। इसी प्रकार चेतन की और अचेतन की पर्यायों में पर्यायत्वरूप अवान्तर सामान्य वर्तमान रहता है । इसी सामान्य को लेकर उन-उन पर्यायों में यह भी पर्याय हैं यह भी पर्याय है इस प्रकार की एकाकार प्रतीति होती है और पर्याय-पर्याय इस शब्द के द्वारा उनमें वाच्यता आती है अत: इस प्रकार की प्रतीति से एवं एक शब्द द्वारा वाच्यता से अनुमित पर्यायत्व का अभेद उनमें वर्तमान रहता है ।
__ इस कथन से यही फलित होता है कि धर्मास्तिकायरूपद्रव्य और विशेषरूप पर्याय की ओर दृष्टि न देते हुए अवान्तरसत्तारूप द्रव्यत्व सुवर्णत्व आदि सामान्य को स्वीकार करने वाली जो प्रतिपत्ता की विचारधारा है वही अपरसंग्रहनय है। परसंग्रहनय का तो उद्देश्य ऐसा है कि वह अशेषविशेषात्मक पर्यायों को सत्तामात्र के प्रतिपादन द्वारा सन्मात्र अन्तनिहित कर लेता है और अपरसंग्रहनय का उद्देश्य ऐसा है कि वह अवान्तर सत्ता रूप जो द्रव्यल्ब पृथिवील और सुवर्णत्व आदि हैं उनके प्रतिपादन