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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : षष्ठम अध्याय, सूत्र --6
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उत्तर--आगम में नय दो प्रकार का कहा गया है—एक सम्यक् एकान्त और दूसरा मिय्या एकान्त । जो वस्तुगत इतर धर्मों को तिरस्कार न करते हुए विवक्षित अपने एक धर्म के द्वारा वस्तु की प्ररूपणा करता है वह सम्यक् एकान्त है। तथा जो विवक्षित धर्म से अतिरिक्त अपने प्रतिपक्षी धर्मों का निराकरण करते हुए उस एक ही धर्म द्वारा वस्तु की प्ररूपणा करता है वह मिथ्या एकान्त है । नय का मिथ्र्यकान्त दुर्नय का विषय कहा गया है और नय का सम्यक् एकान्त सुनय का विषय कहा गया है अतः इसमें प्रमाणैकदेशता घटित हो जाती है। मूल में नय के संक्षेपतः द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ऐसे दो भेद हैं लो प्रकट किये जा चुके हैं। तथा वस्तु सामान्य विशेष धर्मात्मक हैं यह भी समझाया जा चुका है। यहाँ पर द्रव्यार्थिक नय के तीन भेदों में से पहला भेद जो नैगमनय है उसका ही लक्षण प्रकट किया गया है।
प्रश्न-जबकि द्रव्याथिकनय द्रव्य को ही मुख्य रूप से विषय करता है तो उसका भेद रूप नैगमनय भी देखा को ही विषय करने वाला होगा-फिर यहाँ सूत्रकार ने "पर्याययोः" ऐसा कथन क्यों किया है ?
उत्तर- यहाँ क्रमभावी पर्याय पर्याय शब्द से गृहीत नहीं हुई है किन्तु गुणविशेषरूप पर्याय ही पर्याय माब्द से गृहीत हुई है। गुणविशेषरूप पर्याय सहभावी होती है। अतः यह किसी अपेक्षा द्रव्य से अभिन्न होती है उसी गुणविशेषरूप पर्याय को यह विषय करता है इसलिए नैगमनय में द्रव्याथिकभेदता होने में कोई विरोध जैसी बात नहीं है ।
जब ऐसा कहा जाता है कि पर्यायवान् द्रव्य वस्तु है तो इस प्रकार का कथन दो द्रव्यों को मुख्य और गौण करके कहने वाले नैगम नय की अपेक्षा से है। यहाँ जब किसी ने नैगमनयानुयायी से पूछा कि वस्त क्या है? तब उसने पूर्वोक्त रूप से उत्तर दिया है। इस उत्तर में दो धर्मी हैं एक बस्त और दसरा पर्यायावाला द्रव्य । इसमें मुख्य वस्तु है और पर्यायवाला द्रव्य यह गौण है । इसी तरह जब ऐसा कहा जाता है कि विषयासक्तजीव एक क्षण भर तक सुखी रहता है तो इस प्रकार का यह कथन द्रव्य और पर्याय को मुख्य और गौण करके कहने वाले नैगमनय की अपेक्षा से है। यहाँ जब किसी ने नैगमनयानुयायी से पूछा कि क्षणभर के लिये सुखी कौन है तब उसने इस प्रकार से उत्तर दिया है। यहाँ विशेष्य होने के कारण जीव द्रव्य प्रधान है और सुखात्मक उसकी पर्याय गौण है। इस प्रकार से नैगमनय द्रव्यार्थिक नय का भेद होने से द्रव्य को ही मुख्यरूप से विषय करता है ॥८॥ __ सत्र-पर्यायद्वयादिवेकान्ततो भिन्नत्वाभिप्रायो तदाभासः ।।६।।
संस्कृत टीका-योऽभिप्रायो नैगमनयबदवभासतौसोऽभिप्रायो नैगमनयाभासोऽवगन्तव्यः। यतः गर्यायद्वयादिषु कथञ्चिद् वर्तमानायाः अभिन्नतायास्तेन तिरस्करणात् एकान्तेन च तेन तत्र भेद प्रतिपादनाच्चातस्तन सदाभासत्वमायाति ।
अर्थ-दो पर्याय आदिकों में एकान्ततः भिन्नता ही है ऐसा जो अभिप्राय है वही नंगमनयाभास है। क्योंकि इस प्रकार का प्रतिपादन नैगमनय के जैसा तो प्रतीत होता है पर वह वास्तविक नैगमनय के अनुरूप नहीं होता है। दो पर्यायों में सर्वथा भिन्नता नहीं होती है, दो द्रव्यों में सर्वथा भिन्नता नहीं होती है और द्रव्य एवं पर्यायों में सर्वथा भिन्नता नहीं होती है किन्तु कथंचित् भिन्नता होती है और कथंचित् अभिन्नता होती है । नैगमनय अपने विषय का प्रतिपादन करते समय उसका ही समर्थन तो करता है पर वह उनमें वर्तमान अभिन्नता का निराकरण नहीं करता है। पर नेगमनयाभास उनमें कथंचित् रूप से