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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका: पष्ठम अध्याय, सूत्र १०
वर्तमान उनको अभिन्नता का निराकरण करता हुना अपने द्वारा मान्य भिन्नता का ही प्रतिपादन कर है और उसी का समर्थन करता है ॥६।।
सूत्र सर्वतन्त्र स्वतन्त्रसत्ता मात्रमाही संग्रहनयः परापरभेदाच्च द्विविधः ।। १० ।।
संस्कृत टीका-सत्त्वद्रव्यत्वसुवर्णत्वादिरूप सर्वतन्त्रस्वतन्त्रसतारूप सामान्य मात्रविषयको योऽभिप्रायविशेषः प्रतिपत्तः स संग्रहनयः एतेन सम् संगततया पिण्डाकारत्वेन विशेष राशि गृह णाति इति संग्रहशब्दव्युत्पत्त्या सामान्यमात्र प्रतिपादनमुखेन विशेषराशेरपि संग्राहकोभिप्रायविशेषः संग्रहनयः इति फलितम यथा- "लोकोऽयमेकरसः सत्त्वेनाविशेषात् इत्यनुमानेन संसारस्य सन्मात्ररूपेणव संगृह्यमाणविषयत्वेन सकलविशेष्वोदासीन्यमवलम्बमानोऽयमभिप्रायविशेषः सत्ताद्वैतमभ्युपगच्छन् संग्रहनयत्वेन व्यपदिश्यते "एगे लोए" इति स्थानाङ्गवचनात् एवं सत्ताबान्तरद्रव्यत्वसुवर्णत्वादि धर्माणां स्वीकारेण तदाश्रयभूतधर्मास्तिकायादि विशेषाणोञ्चातिरस्कारेण प्रवर्तमानोऽभिप्रायविशेषः संग्रहनयोबोध्यः स चार्य संग्रहनयो द्विविधो बत्तते-पर संग्रहः नयोपरसंग्रह नयश्चेति एतयोः स्वरूपमग्रे वक्ष्यते परसंग्रहाल्पामहासत केत्र सकलपदार्थ सार्थव्यापित्वात, अपर संग्रहरूपासत्ताऽनेकविधाजात्यनुसारेण तस्या अनेक विकल्प संभवात् ।। १० ॥
अर्थ-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र सत्तामात्र को विषय करने वाला जो नय है उसका नाम संग्रहनय है । यह संग्रहनय परसंग्रहनय और अपरसंग्रहह्नय के भेद से दो प्रकार का है।
हिन्दी व्याख्या-सत्त्व, द्रव्यत्व सुवर्णत्व आदि रूप सर्वतन्त्र स्वतन्त्रसत्तारूप सामान्य मात्र को विषय करने वाला प्रतिपत्ता का जो अभिप्राय विशेष है, वह संग्रह्नय है, इस कथन के अनुसार जो विशेष राशि को पिण्डाकाररूप से ग्रहण करने वाला अभिप्राय है वह संग्रहनय है ऐसा इसका निष्कर्षार्थ निकलता है । यह नय स्वतन्त्ररूप से विशेषों का ग्राहक नहीं होता है किन्तु उन विशेषों को वह इस रूप से संग्रह करता है कि जिससे वे सब उसके पेटे में संग्रहीत हुए समा जाते हैं । जैसे यह विश्व एकरूप है यहाँ पर जब विश्व को एकरूप कहा जाता है उस समय बह एक महासत्ता से युक्त हुआ ही प्रतीत होता है । विश्व के जितने पदार्थ हैं वे सब सत्ता से विहीन नहीं हैं सब ही सत्ता से युक्त हैं, अतः इस एक सत्ता धर्म से युक्त होने की अपेक्षा वे सब एक हैं। यह परसंग्रहनय की अपेक्षा कथन है जिस प्रकार मनुष्यत्व जाति को अपेक्षा सब मनुष्य एक होते हैं उसी प्रकार विश्व संसार भी एक महासत्ता संयुक्त होने के कारण एक है। प्रकार यह कयन पर सता महासत्ता की अपेक्षा कहा गया है। उसी प्रकार अपरसंग्रहनय की अपेक्षा से लोक में जितनी-जितनी जातियाँ संभव हैं उन-उन जातियों की अपेक्षा अपरसंग्रहनय उन-उन के विशेष व्यक्तियों का संग्रह करके उनमें एकत्व का कथन करता है । परसंग्रहनय का दूसरा भाम महासत्ता है यह एक रूप ही होती है इसमें भेदों का व्यवहार नहीं होता है । तथा अपरसंग्रह का दूसरा नाम अवान्तर सत्ता है । यह भिन्न-भिन्न जातियों की अपेक्षा अनेक भेद बाली होती है। सत्त्व यह महासत्ता है और द्रव्यत्व सवर्णत्व आदि अपर सत्तारूप है। यहाँ इतना विशेष और समझ लेना चाहिये कि नैयायिक और वैशेषिकों ने पर और अपर नाम का व्यापक और नित्य जैसा स्वतन्त्र सामान्य माना है ऐसा सामान्य जैन दर्शन को अभीष्ट नहीं है । स्वरूप सत् और सादृश्य सत् के भेद से सत् दो प्रकार होता है। जो प्रत्येक व्यक्ति के स्वरूपास्तित्व का बोधक होता है । वह स्वरूप सत् है और जो परिणाम नाना-नाना व्यक्तियों में पाया जाता है वह सादृश्य सत् है संग्रहह्नय का प्रयोजक यह मुख्यतः सादृश्य सत् ही है, यह बड़ा या छोटा विवक्षित होता है संग्रहह्नय भी उतना ही बड़ा या छोटा हो जाता है। तात्पर्य इस कथन का यही है कि जो विचार सदृश परिणमन के आश्रय से नामा वस्तुओं में एकत्व की कल्पना करके प्रवृत्त होते हैं वे सब संग्रह नय की श्रेणी में आ जाते हैं ।। १० ।।