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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पष्ठम अध्याये, संत्र
इत्यत्र चैतन्यरूपस्य गुणात्मक पर्यायस्य प्राधान्येन विवक्षा सत्त्वस्य च चतन्यविशेषणत्वेन गौणरूपेण विवक्षा मिद्वयोः प्रधानगीणभावेन विवक्षणमित्यं यथा-"पर्यायववव्यं वस्तु वर्तते" इत्यत्र पर्यायवद्द्रव्यस्य धर्मिणो गौणत्वेन विवक्षणं वस्तुरूपस्य च धर्मिणः प्राधान्येन विलक्षणम् । द्रव्यपर्याययोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन विवक्षणं यथा-"विषयासक्तजीवः क्षणमेकं सुखी इत्यत्र विषयासक्तजीवस्य धर्मिणः प्राधान्येन विवक्षणं विशेष्यत्वात् सुखात्मकधर्मस्य तु गौणत्वेन विवक्षणं विशेषणत्वात् एतेषु त्रिष्वप्युदाहरणेषु नंगमनयस्य द्रव्यविषयकतया द्रव्याथिक नयत्वमवगन्तध्यम् ।। ८ ।।
___ अर्थ-जिस अभिप्राय के द्वारा दो पर्यायों की, दो द्रव्यों की और द्रव्यपर्याय की मुख्य और गौणरूप से विवक्षा की जाती है ऐसा वह वक्ता का अभिप्राय ही नंगमनयरूप कहा गया है ।। ८ ।।
हिन्दी व्याख्या नैगमनय द्रव्याथिकनय का एक भेद है अतः सर्वप्रथम इसकी प्ररूपणा करने के ख्याल से सूत्रकार ने यहाँ इस सूत्र द्वारा आगमपरम्परा संमत लक्षण कहा है । इसमें यह समझाया गया है कि यह नैगमनय वस्तु का बोध कराने के लिए अनेक मार्गावलम्बी होता है जिस प्रकार से जिज्ञासु वस्तु के स्वरूप को हृदयङ्गम करले उस रूप से यह उसे समझाता है यदि कोई वस्तु को सर्वथा नित्य मानता है और कोई वस्त को सर्वथा अनित्य मानता है तो यह नय उन दोनों को इस प्रकार देता है कि जिससे उन दोनों के विचारों में समन्वय की भावना उत्पन्न हो जाय । जितने भी मत हैं ये सब दृष्टि की भिन्नता के ही परिणाम हैं। नय इसी दृष्टि की भिन्नता को दूर करता है और समन्वय करने की बुद्धि देता है वैसे तो सभी नय अपने-अपने मान्य सिद्धान्त का समर्थन करते हैं पर वे एक दूसरे नय के मान्य सिद्धान्त पर कुठाराघात नहीं करते हैं नहीं सुन काम है और जो न्य ऐसा नहीं करते हैं वे दुर्नय की कोटि में आ जाते हैं।
प्रश्न-प्रत्यक्षादि प्रमाण जब वस्तु के व्यवस्थापक माने गये हैं तो फिर इन नयों के कहने की क्या आवश्यकता हुई?
उत्तर-प्रत्यक्षादि प्रमाण वस्तु के व्यवस्थापक हैं इसका तात्पर्य केवल यही है कि वे वस्तु को वह अनन्त धर्मात्मक है इस रूप से व्यवस्था करते हैं । पर उन धर्मो का दुनिया को प्रकाश नय द्वारा प्राप्त होता है । इसलिये नय की आवश्यकता है ।
प्रश्न-इस कथन का भाव समझ में नहीं आया पुनः समझाइये ?
उत्तर-प्रमाण का काम क्या है यह बात तो हम पीछे अच्छी तरह से स्पष्ट ही कर चुके हैं अतः उसे वहाँ से समझ लेना चाहिए । प्रमाण की व्यवस्था धर्म धर्मों में अभेद मानकर उस व्यवस्था को अच्छी तरह स्पष्टीकरण करके समझाता है।
प्रश्न-जब वस्तु अनन्त धर्मात्मक है तो उसके एक-एक धर्म को लेकर कथन करने वाला नय प्रमाण कोटि में कैसे आ सकता है ? क्योंकि उसके द्वारा वस्तु के पूर्ण धर्मों का प्रकाशन नहीं किया जाता है ?
उत्तर-यह पहले ही कहा जा चुका है कि नय वस्तु के एक धर्म को लेकर उसका कथन करता है। अत: नय में प्रमाणैकदेशता है। पूर्णरूप से प्रमाणता नहीं है। नहीं तो प्रमाण और नय को अलगअलग मानने की आवश्यकता नहीं होती।
प्रश्न-जब नय वस्तु के एक धर्म का प्ररूपक है तो वह समीचीनता की दृष्टि से प्रमाणकदेश भी कैसे हो सकता है?