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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ३९ किये गये हैं-एक केवलज्ञानी और दूसरे जनकादि । इनमें केवलज्ञानी लोकोत्तर आप्त हैं और जनक आदि लौकिक आप्त है । क्योंकि लौकिक व्यवहार में माता-पिता आदि प्रामाणिक माने जाते हैं । जो वचन आप्तोक्त नहीं होता है वह वथार्थतः आगमकोटि में जैनमान्यतानुसार परिगणित नहीं किया गया है। पंचपरमेष्ठी के सिवाय परमार्थतः लोकोत्तर आप्त कोई नहीं माना गया है।
प्रश्न-जब आगमाभास का आपने यह लक्षण किया है तो इससे उनकी भ्र संज्ञा आदि से जायमान ज्ञान आगमाभास नहीं कहला सकेगा क्या?
उत्तर-उनके वचन से जायमान ज्ञान को जब आगमाभास की श्रेणी में रखा गया है तो इससे यह भी जान लेना चाहिए कि कसा आधिशे आमाज शाम भी अगमावास की धणी में ही रखा गया है।
प्रश्न-इस बात का सूचक सूत्र में तो कोई शब्द है ही नहीं फिर आप ऐसा कसे कहते हैं ?
उत्तर-सूत्र में "वचन" यह शब्द उपलक्षणरूप है अतः इससे ही 5 संज्ञा आदि का ग्रहण हो गया है ।।३।।
सूत्र-उक्त प्रमाणद्वयातिरिक्तन्यूनाधिकतत्संख्यानं सख्याभासम् ।। ३६ ।।
संस्कृत टीका-आगमप्रमाणाभासं निरूप्य संख्याभासं निरूपयितुमुक्तप्रमाणद्व यातिरिक्त त्यादि सुत्रमाह सूत्रकारः-तथा च प्रत्यक्षमेवैक प्रमाणमिति चार्वाक कल्पितप्रमाणसंख्या, प्रत्यक्षमनुमान चैतद् द्वयमेव प्रमाणामिति तथागतकल्पित प्रमाणसंख्या, प्रत्यक्षमनुमानमागमश्चैत त्रयमेव प्रमाणमिति साख्यकालातप्रमाणसख्या, प्रत्यक्षमनुमानमागम उपमानचीत चत्वायव प्रमाणानि इति चाक्षपादकल्पित प्रमाणसंख्या अापत्तियुतं तच्चतुष्टयमेवं प्रमाणमिति प्रभाकरकल्पितपञ्चप्रमाणसंख्या अनुपलब्धि सहितमेतत्पञ्चकमेव प्रमाणमिति भट्टमतकल्पित प्रमाणषट्कसंस्था, संभव सहितमेतत्षटकं प्रमाणमिति पौराणिककल्पित सप्तप्रमाणसंख्या, ऐतिह्यसहितमेतत्सप्तकमेव प्रमाणमिति ऐतिहासिककल्पितप्रमाणाष्टकसंख्या, चेष्टासहित गेतदष्टकमेव प्रमाणमिति पौरोहित्यकल्पितनव प्रमाणसंख्या प्रमाणसंख्याभासरूपव प्रत्यक्षपरोक्षभेदेन प्रमाणद्वित्वसंख्याया एव पारमार्थिकत्वात् ।। ३६ ।।
___ अर्थ-प्रमाण की संख्या भेद जैसी जितनी पीछे कही गई है उससे अतिरिक्त उसकी संख्या प्रमाणाभास में परिगणित हुई है ।। ३६ ।।
हिन्दी व्याख्या-आगमप्रमाणाभास का निरूपण करके सूत्रकार ने इस सुत्र द्वारा प्रमाण संख्याभास का निरूपण किया है । इसके द्वारा यह समझाया गया है कि चार्वाक ने प्रत्यक्ष ही प्रमाण है अनुमानादिक प्रमाण नहीं है इस रूप से जो प्रमाणसंख्या एक ही रूप मानी है, वह बौद्ध ने प्रत्यक्ष और अनुमान के भेद से प्रमाण संख्या दो मानी है, वह सांख्य ने प्रत्यक्ष अनुमान और आगम के भेद से प्रमाण संख्या तीन मानी है, वह अक्षपाद ने प्रत्यक्ष अनुमान आगम और उपमान के भेद से प्रमाणसंख्या चार मानी है, वह प्रभाकर ने प्रत्यक्ष अनुमान आगम उपमान और अर्थापत्ति के भेद से प्रमाणसंख्या पांच मानी है, वह भट्ट ने प्रत्यक्ष अनुमान आगम उपमान अर्थापत्ति और अनुपलब्धि अभाव के भेद से प्रमाण संख्या छह मानी है, वह पौराणिकों ने प्रत्यक्ष अनुमान आगम उपमान अर्थापत्ति अभाव और संभव के भेद से प्रमाणसंख्या साल मानी है, वह ऐतिहासिकों ने प्रत्यक्ष अनुमान आगम उपमान अर्थापत्ति अभाव संभव और ऐतिह्य के भेद से प्रमाणसंख्या आठ मानी है वह और पौरोहितों ने प्रत्यक्ष अनुमान आमम उपमान अर्थापत्ति अभाव संभव ऐतिह्य और चेष्टा के भेद से प्रमाण संख्या मानी है । सो ये सब संख्याभास रूप ही हैं क्योंकि