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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सुत्र ४०-४१
प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाणसंख्या दो रूप ही यथार्थ है यह सब इसकी बड़ी टीका से स्फुट रूप से ज्ञात होगा ॥ ३६ ।।
सूत्र--सामान्यमेव विशेष एवं वा निरपेक्षं तदुभयमेव प्रमाण-विषय इति तस्य विषयाभासः ||४०॥
संस्कृत टोका-- सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनः सत्त्वेन तदात्मकमेव जीवादिवस्तु प्रमाणविषयो भवति अतः सामान्यमेव प्रमाण-विषय इति सत्ताद्वैतमतं विशेष एव प्रमाणविषय इति बौद्धमतं परम्परनिरपेक्षा सामान्यविशेषौ एव प्रमाण विषयः इति नैयायिकमतं विषयामासस्वरूप मन्तव्यं परस्परापेक्षप सामान्य विशेषात्मकस्य वस्तुनः प्रमाणविषयत्वेनोक्तत्वात् ।।४।।
अर्थ-सामान्य ही प्रमाण का विषय है अथवा विशेष ही या परस्पर निरपेक्ष सामान्य विशे ही प्रमाण का विषय है ऐसी जो मान्यता है वही प्रमाण का विषयाभास है।
हिन्दी व्याख्या-प्रत्येक पदार्थ सामान्य और विशेष धर्मों का आयतन है इनकी एक के बिना एक के अभाव में स्वरुप सत्ता ही नहीं बन सकती है । तथा ये दोनों धर्म परस्पर में सर्वथा निरपेक्ष भी नहीं है । अतः जब वस्तु ही सामान्य विशेष धर्मात्मक है तो प्रमाण का विषय भी सामान्य विशेष रूप हो है अतः सत्ताद्वैतवादियों की यह मान्यता कि प्रमाण केवल सामान्य को ही जानता है विशेष धर्म को नहीं जानता या बौद्धों की यह मान्यता कि प्रमाण केवल एक विशेष को ही जानता है सामान्य धर्म को नहीं जानता तथा नंयायिकों की यह मान्यता कि प्रमाण केवल परस्पर में सर्वथा एक दुसरे की अपेक्षा से बिहीन हुए सामान्य को और विशेष दोनों की ही जानता है उस प्रमाण की विषयाभास स्वरूप ही है क्योंकि सामान्य विशेषात्मक पदार्थ ही प्रमाण का विषय होता है यह बात पीछे के सूत्रों द्वारा स्पष्ट की जा चुकी है।
सूत्र-प्रमाणात्तत्फलं सर्वथा भिन्नमभिन्नं वेति फलाभासं ।।४१।।।
संस्कृत टीका--प्रमाणादज्ञाननिवृत्त्यादिरूपं फलमेकान्तेन भिन्नमभिन्नं चेति नैयायिक बौद्धमतोक्तं प्रमाणफलाभासरूपमेव प्रमाणात्तत्फलस्य कथञ्चिभि नाभिन्नत्वस्यैवानुभावात् ।।४।।
अर्थ-प्रमाण का फल प्रमाण से सर्वथा जुदा है या सर्वथा जुदा नहीं है ऐसी जो एकान्तरूप से अन्थीर्थिक जनों की मान्यता है वही उसका फलाभास है।
हिन्दी व्याख्या-यह पीछे स्पष्ट कर दिया गया है कि प्रमाण का अज्ञाननिवृत्तिरूप साक्षात्फल और हानोपादानोपेक्षारूप परम्पराफल प्रमाण से किसी अपेक्षा भिन्न भी है और किसी अपेक्षा अभिन्न भी है। परन्तु इस सिद्धान्त को न मानकर केवल स्वमतव्यामोह के कारण जो बौद्ध सिद्धान्त प्रमाण के फल को प्रमाण से सर्वथा अभिन्न मानता है और नैयायिक सिद्धान्त प्रमाण से प्रमाण के फल को सर्वथा भिन्न मानता है सो यह ऐसी मान्यता प्रमाण की फलाभासरूप ही है ऐसा जानना चाहिए ।।४।।
|| पंचम अध्यायः समाप्तः ।।