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न्याय रत्नसार में प्रत्यक्ष का लक्षण इस प्रकार वह स्मरण है। पूर्व अनुभूत वस्तु को जानना । किया-'विशदात्म स्वरूपं ज्ञानं प्रत्यक्षम् ।' परोक्ष जैसे वह पर्वत, जिसे पहले देखा था । स्मरण धारणा का लक्षण किया- 'वेशद्यविहीनं ज्ञानं परोक्षम् ।' ये रूप संस्कार के प्रबुद्ध होने पर उत्पन्न है। कुछ दोनों लक्षण ही निर्दोष नहीं है। प्रत्यक्ष के लक्षण आचार्य स्मरण को प्रमाण नहीं मानते | यदि स्ममें आत्म और स्वरूप शब्दों का प्रयोग ठीक नहीं रण को प्रमाण नहीं माना जाएगा, तो अनुमान क्योंकि आत्म और स्वरूप दोनों का एक ही अर्थ भी प्रमाण नहीं बन सकेगा। क्योंकि अनमान है। दोनों व्यर्थ विशेषण हैं । इसकी अपेक्षा "विशदं व्याप्ति के स्मरण से उत्पन्न होता है। लोक व्यवज्ञानं प्रत्यक्षम्' इतना ही पर्याप्त था। परोक्ष का लक्षण हार भी स्मरण के आधार पर चलता है । भी ठीक नहीं । क्योंकि वशद्य विहीन' इसकी अपेक्षा
प्रत्यभिज्ञान क्या है ? प्रत्यक्ष और स्मरण से अविशद इतना ही पर्याप्त था। पहले विशद से
उत्पन्न तथा संकलनात्मक जो ज्ञान, वह प्रत्यभिज्ञान वैशद्य बनाया, फिर बिहीन शब्द जोड़ा। इतनी
कहा जाता है। जैसे यह वही जिनदत्त है। यह लम्बी प्रक्रिया स्वीकार करने पर भी समस्या
वही गाय है। कल जिनदत्त को देखा था, आज सुलझी नहीं । बात स्पष्ट न हो सकी । पाठक उलझ
फिर वह फिर सामने आया। जिस गाय जाता है।
को कल देखा, उसे ही आज देख रहा हूँ। सूत्र शैली की दृष्टि से भी यह लक्षण ठीक नहीं प्रत्यभिज्ञान अनेक प्रकार होता है। जैसे सादृश्य कहा जा सकता। सत्र में प्राब्द कम से कम हों और प्रत्यभिज्ञान, एकत्व प्रत्यभिज्ञान। नंयायिक उपमान अर्थ गम्भीर हो। अतएव पूर्वकथित लक्षण ठीक को स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं । यह टोक नहीं। क्योंकि है। न्यायरत्नसार के दोनों लक्षण-प्रत्यक्ष का
जैसे सादृश्य को जानने वाला भी प्रमाण है, तो भी तथा परोक्ष का भी-ठीक नहीं कहा जा सकता।
एकता और विलक्षणता को जानने वाला भी प्रमाण पाठक समझ नहीं पाता। परोक्ष के लक्षण में पूर्व
होना चाहिए । फिर तो प्रमाणों की संख्या का पार आचार्यों ने अविशद, अस्पष्ट शब्दों का जो प्रयोग ही नहीं रहेगा। अतः उपमान स्वतन्त्र प्रमाण नहीं किया है, वह सर्वथा उपयुक्त है। परोक्ष ज्ञान में, हो सकता। अन्य किसी जान को कारण बनना पड़ता है। जैसे
तकं क्या है ? त्रिकालवी साध्य-साधन के स्मति में पूर्व अनुभव कारण है। प्रत्यभिज्ञान में अविनाभाव सम्बन्ध को अर्थात व्याप्ति को बताने पूर्व स्मृति और वर्तमान का अनुभव कारण है। तक बाला जो ज्ञान है, उसको तर्क कहते हैं । यह इसके में व्याप्ति ज्ञान कारण है। पर्वत पर अग्नि के अनु- होने पर हो होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं मान में धूम का पबेत पर प्रत्यक्ष कारण है। अतः होता। कह इसका नामांतर है। तर्क में व्याप्ति परोक्ष प्रमाण के लक्षण में अविशद अरि अस्पष्ट का होना आवश्यक शब्दों का प्रयोग करना उचित है । प्रत्यक्ष प्रमाण में अन्य ज्ञान कारण नहीं होता। अतः वह विशद एवं
__व्याप्ति क्या है ? जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँस्पष्ट है।
वहाँ अग्नि होती है । इस प्रकार के अविनाभाव
सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं। यह अविनाभाव परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं-स्मरण, प्रत्य- सम्बन्ध कालिक होता है। जिस ज्ञान से इस भिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम |
सम्बन्ध का निर्णय होता है, उसे तकं कहते है। स्मरण क्या है ? धारणा रूप संस्कार के प्रबुद्ध तकं ज्ञान उपलम्भ और अनुपलम्भ से उत्पन्न होता होने पर पूर्व पदार्थ को जानने 'वाला जो ज्ञान, है।