________________
प्रत्येक प्रमाण के अवांतर भेद भी किए हैं। प्रत्यक्ष भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के भेदके सांव्यवहारिक भेदों में अवग्रह आदि के भेदों के प्रभेदों का कथन किया जा चुका है । परोक्ष प्रमाणों लक्षण अलग हैं। पारमार्थिक भेदों में अवधि, मनः के भेद और प्रभेदों का वर्णन इस प्रकार हैपर्याय और केवल के लक्षण अलग हैं। इस प्रकार परीक्षामुख ग्रन्थ में परोक्ष प्रमाण का कथन प्रमाण चर्चा काफी लम्बी है। वह अपने आप में वें सत्रों में किया है। प्रमाणनयातत्वलोक में परिपूर्ण भी है । सर्बज्ञ की चर्चा भी है । सूत्रों की १०६ सूत्रों में किया गया है। प्रमाण-मीमांसा में वृत्ति में विस्तार से दर्शनान्तरों की मान्यता का २३ सूत्रों में किया है। न्यायरत्नसार में ७३ सूत्रों खण्डन भी जोरदार किया गया है।
में किया है। न्याय रत्तसार में न बहुत संक्षेप है न्यायरत्नसार के द्वितीय अध्याय के सूत्र १५, और न बहुत विस्तार है। मध्यम शैली को १६, १७ में सर्वज्ञ की सिद्धि को है। कहा गया है स्वीकार किया गया है । इन ग्रन्थों में विचार का कि अर्हन में ही केबलज्ञान का सद्भाव होता है। अन्तर तो है नहीं। शब्दों का अन्तर अवश्य है । केवलज्ञान जिस में वही परमात्मा है। क्योंकि वह जैसे कि किसी ने स्मृति शब्द दिया है, तो किसी ने सर्वज्ञ है । वह सर्वज्ञ क्यों है ? क्योंकि वह सर्वथा स्मरण शब्द का प्रयोग किया है। किसी में प्रत्यनिर्दोष है। उसमें न राग है, उसमें न द्वष है। भिज्ञान दिया है, तो किसी ने प्रत्यभिज्ञा शब्द वह निर्दोष क्यों है ? क्योंकि उसके वचनों में किसी रखा है । किसी ने तर्क शब्द दिया है, तो किसी ने प्रकार का विरोध नहीं आता। उनके बचन में, ऊह शब्द का प्रयोग किया है। किसी ने आगम आगम में किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती 1 शब्द दिया है, तो किसी ने शब्द प्रमाण का प्रयोग बाधा क्यों नहीं आती? अयोंकि उनका जो अभि- किया है। अनुमान शब्द का प्रयोग सबने किया मत तत्व है, वह किसी भी प्रसिद्ध प्रमाण से बाधित है। शब्दान्तर करने से भावान्तर नहीं हो जाता । नहीं हो पाता है। अतः सिद्ध हो जाता है कि वह भाव सबका एक ही है। सर्वज्ञ है, केवली है, सर्वदर्शी है, परमात्मा है।
परोक्ष प्रमाण के लक्षण में भेद देखा जाता है।
किन्तु परोक्ष का लक्षण क्या हो सकता है, जो सबको न्यायरत्नसार के अध्याय २, सूत्र १८ में कहा मान्य हो। आचार्य माणिक्यनन्दि ने प्रत्यक्ष का लक्षण गया है कि कबलाहार और सर्वज्ञ में किसी भी
किया-'विशदं प्रत्यक्षम्' लेकिन परोक्ष का लक्षण प्रकार का विरोध नहीं है । दिगम्बर केवली को
नहीं विया। केवल इतना कहा-'परोक्षमितरत।' कवलाहार नहीं मानते हैं। श्वेताम्बर मानते हैं। प्रत्यक्ष से भिन्न परोक्ष होता है। 'अविशद परोक्षम' यह चर्चा बहुत पुरानी है । परम्परा चली आ रही कहना चाहिए। आचार्य वादिदेव सूरि ने कहाहै। संक्षेप में उसकी चर्चा यहाँ कर दी गई है। स्पष्ट प्रत्यक्षम्' और 'अस्पष्टं परोक्षम् ।' आचार्य ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ में उक्त विषय की चर्चा करते हेमचन्द्र सरि ने प्रत्यक्ष का लक्षण किया-'विशदः रहे हैं। इन्होंने भी अपने न्यायरत्नसार में उस प्रत्यक्षम्' और परोक्ष का लक्षण किया-'अविशदः चर्चा को उठाया है । उसका तकौ को द्वारा समा- परोक्षम् ।' पल्लिग शब्द का प्रयोग क्यों किया? धान भी किया है । पाठक मूल ग्रन्थ में पढ़ लें। प्रत्यक्षं तो नपुंसकलिंग है। लेकिन हेमचन्द्र सूरि तीसरा अध्याय
ने सम्यग अर्थ निर्णय को प्रमाण का लक्षण कहा
था। निर्णय शब्द पुल्लिग है। अतः 'विशदः' जैन न्याय में प्रमाणों का जो विभाजन किया शब्द का प्रयोग मनुचित नहीं है। माणिक्यनन्दि है, वह अन्य दर्शनों के विभाग से भिन्न प्रकार का है, ने विशद को प्रत्यक्ष ज्ञान का विशेषण माना है । और विलक्षण भी है। मुख्य रूप से प्रमाण के दो अतः वह भी गलत नहीं कहा जाता।