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न्यायरत्न : न्याय रत्नावली टीका : पंचम अध्याय, सूत्र ७-८
प्रमाण से ही उत्पन्न होता है और वह उस अपेक्षा कार्य होने की दृष्टि से प्रमाणरूप अपने कारण से भिन्न होता हुआ भी सर्वथा भिन्न तो नहीं कहा जा सकता, किसी अपेक्षा से ही भिन्न कहा जा सकता है । जिस प्रकार घट में मृत्तिका का अन्वय रहता है और इसी से वह मृत्तिका का घट ऐसा कहा जाता है। इसी प्रकार प्रमाण फल में भी प्रमाण का सम्बन्ध रहता है इसी कारण नह प्रमाण का फल है ऐसा कहा जाता है । अतः इस दृष्टि से प्रमाण से प्रमाण का फल सर्वथा भिन्न नहीं हो सकता है।
प्रश्न-यदि प्रमाण और प्रमाण के फल को सर्वथा भिन्न मानने में प्रमाण और प्रमाण फल ऐसा व्यबहार नहीं सध सकता है। तो फिर प्रमाण से प्रमाण फल को मर्वथा अभिन्न ही मानने में क्या बाधा है ?
उत्तर- बहुत बड़ी बाधा है। क्योंकि इस स्थिति में भी प्रमाण और प्रमागफल इन दोनों की स्वतन्त्र मुत्ता नहीं बन पाती है । अतः प्रमाण और प्रमाणफल में परस्पर में साधनसाध्य भाव है इसलिए तो वह कथञ्चित् भिन्न है और ये दोनों एक ही प्रमाणता में तादात्म्य सम्बन्ध से रहते हैं इसलिए ये कञ्चित् अभिन्न हैं। यही समाजाला मान्यता। यहां समुचित है । एकान्त मान्यता नहीं ।
प्रश्न-आपका यह कथन हम कैसे प्रमाणित माने कि प्रमाण और उसके फल में कथञ्चित अभिन्नता है । देरको प्रमाण का जो परम्परा कल हान, उपादान आदि रूप है वह तो उससे व्यवहित होने के कारण सर्वथा भिन्न ही हैं। यदि इसे सर्वथा भिन्न नहीं माना जावे तो उसे अज्ञान निवृत्ति की तरह साक्षात्फलरूप हो मानना चाहिए था।
उत्तर-पोसा कहना भी ठीक नहीं है। कारण कि प्रमाण का जो साक्षात् फल है उसका फल हानोपादानादि बुद्धि रूप होता है। अतः जो प्रमाण से वस्तु जानी गई है उसे ही जानने वाला या तो ग्रहण करता है या उसका परित्याग आदि करता है । अतः एक ही प्रमाता में प्रमाण और उसके फल का तादात्म्य सम्बन्ध होने की अपेक्षा लेकर प्रमाण और उसके परम्पग फल को सर्वथा भिन्न नहीं माना जा सकता है। यदि इस परम्परा फल को प्रमाण से सर्वथा जुदा ही माना जावेगा तो फिर देवदत्त के द्वारा जानी हुई वस्तु को ग्रहण या हान करने आदि रूप बुद्धि के होने का प्रसङ्ग यज्ञदत्त में भी प्राप्त होगा। क्योंकि जिस प्रकार वह परम्परा फल देवदत्त के प्रमाण से सर्वथा जुदा है उसी प्रकार वह फल यज्ञदत्त के प्रमाण से भी जुदा है । फिर कोई कारण नहीं कि वह देवदत्त के प्रमाण के साथ ही सम्बद्धित रहे और यज्ञदत्त के प्रमाण के साथ सम्बद्धित न रहे । अतः परम्पराफल प्रमाण से सर्वथा भिन्न ही है इस दुराग्रह को छोड़कर यही मानना चाहिए कि परम्परा फल भी प्रमाण से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न
सूत्र—एक प्रमातृ तादात्म्येन कार्यकारणभावेन च प्रमाणफलयोः कथञ्चिदेकत्वानेकत्वम् ।। ७ ।।
संस्कृत टीका-उत्तानार्थमिदं सूत्र पूर्वोक्त पद्धत्याऽस्य सुस्पष्टीभवनात् । एक प्रमात तादात्म्येन प्रमाणफलयोः स्यादभिन्नत्वं कार्यकारणभावेन च स्यादनेकत्वं भिन्नत्वमित्यर्थः ॥७॥
हिन्दी व्याख्या-यह ऊपर सूत्र की व्याख्या से स्पष्ट हो चुका है कि प्रमाण से उसका फल चाहे वह साक्षात् फल हो चाहे परम्परा फल हो, किसी अपेक्षा-एक प्रमाता में इन दोनों के तादात्म्य होने की अपेक्षा अभिन्न है और किसी अपेक्षा कार्यकारण भाव की अपेक्षा भित्र भी है। इस तरह से इस सूत्र द्वारा दोनों में कथञ्चित् मित्रता एवं कथञ्चित अभिन्नता का बीज यहाँ प्रकट किया गया है ॥७॥
प्रमाणतः फलस्य कथञ्चिद् भिन्नाभिन्नत्वं सिसाधयिषुः सूत्रकार प्रकारान्तरेणापि तत्साधयति