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न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका: पंचम अध्याय सूत्र, ६
पुनः कर्मरूप पर्याय का कि जिस आत्मा में वह अकर्मरूप पर्याय से स्थित है सद्भाव क्यों नहीं हो जावेगा? ऐसी परिस्थिति में आप जो दोष और आवरणों की सर्वथा हानि होने रूप शुद्धि का राग आलाप रहे हैं वह कैसे बन सकता है ?
उत्तर-यह तो समझा ही दिया गया है कि कार्मणवर्गणाओं का निमित कपायादिक के मिलने से ज्ञानावरणादि पर्याय रूप में परिणमन होता है । जब यह निमित्त ही सर्वथा उस आत्मा से हट गया तो फिर मूलद्रध्य वर्तमान रहने पर भी निमित्त के अभाव में उस रूप में परिणमित हो ही नहीं सकता, दोष और आवरण का परपर में कार्यकारण सम्बन्ध है । जय आत्मा से आवरण म्प कर्म हट जाते हैं तब उनके हटते ही सम्यग्ज्ञानादिक गुणों की जागृति से दोष भी वहाँ से हट जाते हैं। इस प्रकार आत्मा दर्पण की तरह निर्मल हो जाता है और उसमें त्रिकालवी समस्त पदार्थों का झलकना युगपत् होने लगता है। यही आत्मा में सकल पदार्थ साक्षात्कारिता है। जब आत्या में यह सकल पदार्थ साक्षात्कारितारूप सर्वज्ञता प्रकट हो जाती है तब उस बोवलीआत्मा में समस्त पदार्थों के प्रति उपेक्षा भाव-माध्यस्थ्यभाव हो जाता है । हान, उपादानभाव नहीं रहता है । हान उपादान भाव ऋयित आत्मा में ही होता है । इस प्रकार से अतिशायन हेतु द्वारा आत्मा में दोष और आवरणों को संपूर्णरूप से हानि-अक्षय-सिद्ध किया गया है । यही सर्वज्ञत्व की सिद्धि है । सर्वज्ञ के क्षायिकज्ञान का नाम ही केवलज्ञान है ।
सूत्र-प्रमाणात्तत्फलं कथञ्चिदभिन्न भिन्नं चेति ॥६॥
संस्कृत टोका--प्रमाणात प्रमाणफलरय कथञ्चिदभिन्नत्वं त्रयचिच्च भिन्नत्वं मन्तव्यम् । अन्यथा प्रमाणफल व्यवस्था न स्यात् । यदि अज्ञाननिवस्यादिकं प्रमाणफलं प्रमाणतः सर्वथाजभिन्नं भवेत्तदा तयोरेकतरस्यैव व्यवस्था सद्भावात् प्रमाणमिद तत्फलं चेदमिति व्यवहार विलोपो भवेत् । एकमेव तत्फलस्य तस्माद्भिन्नत्ये प्रमाणस्यवेद फल न घटपटादेरिति नियामकाभावेन प्रमाग फल व्यवस्थापिनोपपद्यत । तस्मादनेकान्त मन्तव्यमेव स्वीकरणीयम् ।। ६ ।।
अर्थ-प्रमाण का फल प्रमाण से कथंचित् अभिन्न भी है और कथंचित् भिन्न भी है ।
हिन्दी व्याल्या प्रमाण से प्रमाण का फल कथञ्चिन् भिन्न है और कथंचित् भिन्न है ऐसा मानना चाहिए अन्यथा प्रमाण और प्रमाण के फल की व्यवस्था ही नहीं बन सकती है। यदि अज्ञाननिवृत्ति आदि रूप प्रमाण फल से सर्वथा अभिन्न हो तो उस स्थिति में या तो प्रमाण की ही व्यवस्था रहेगी या फल की ही व्यवस्था रहेगी-दोनों की व्यवस्था नहीं हो सकेगी तब यह प्रमाण है और यह इसका फल है ऐसा जो व्यवहार है उस व्यवहार का विलोप हो जायेगा। इसी तरह प्रमाण के फल को प्रमाण से सर्वथा भिन्न यदि माना जावेगा तो उस स्थिति में भी यह प्रमाण का फल है ऐसा प्रमाण के साथ उसका सम्बन्ध नहीं बन सकेगा क्योंकि जैसा वह प्रमाण से भिन्न है उसी तरह वह घटपटादि से भी भिन्न है अतः घट-पटादि का भी वह फल क्यों नहीं कहा जायेगा और प्रमाण का ही क्यों कहा जायेगा।
प्रश्न-भिन्न होने पर भी यह फल प्रमाण का है ऐसा इसलिए कहा जायेगा कि वह उस प्रमाण से उत्पन्न होता है । घट-पटादिक से वह उत्पन्न नहीं होता है इसलिए बटपटादि का वह है ऐसा नहीं कहा जायेगा।
उत्तर-जैसे मृत्तिका पिण्ड से ही घट उत्पन्न होता है और वह मृत्तिका पिण्ड से आकार-प्रकार की अपेक्षा भिन्न होता हुआ भी उससे सर्वथा भिन्न तो नहीं कहा जाता है किसी अपेक्षा ही भिन्न कहा जाता है । यदि वह उससे सर्वथा भिन्न ही माना जावे तो यह घट मनिका पिण्ड से उत्पन्न हआ है मा व्यवहार कैसे बन सकता है ? अर्थात् नहीं बन सकता है। इसी प्रकार अज्ञाननिवृत्ति आदि रूप फल भी