________________
१३२
न्यायरत्न ; न्यायरलावली टीका : पंचम अध्याय, स्त्र
सूत्र-प्रमाणतया परिणतस्यैवात्मनः फलत्वेन परिणति सद्भावात् ।। ८ ।।
संस्कृत टोका-स्त्रपर व्यवसायात्मवज्ञानरूप प्रमाणतया परिणतस्यैव प्रमातृरूपात्मद्रव्यस्य स्वपर-निश्चयरूपाज्ञाननिवृत्ति हानोपादानोपेक्षाबुद्ध यादिनाऽपि परिणममानत्वेन तदुभयोरपि प्रमाणफलयोरेकात्म प्रमातृ द्रव्य तादात्म्यापन्नत्वेन परस्परमपि तयोरभिन्नत्वं सिद्ध यति । एतेन य एव प्रमात रूप आत्मा प्रवर्ग पर च्यवसारस्वमानरूप प्रमाणतया परिणतो भवति स एव पश्चात प्रमाण फलरूपेणापि परिणमते इत्येवमेक प्रमात रूपात्मद्रव्यापेक्षया तदुभयोरपि प्रमाणरूप फलरूपयोः परस्परमभेदः सिद्ध यतीति भावः, एतेन ज्ञानावरणीयादि कर्मणां क्षय-क्षयोपशमाभ्यां ज्ञानावरणादि कमरजोमल रहितस्य किन्चित्समलस्य बा स्वयंप्रकाशशीलस्यात्मनः स्वपर व्यवसाय स्वभावरूप प्रमाण तथा परिणमनानन्तरं प्रकाशेनान्धकारस्य निवृत्तिवत् तथाक्षयोपशमं सर्वथा बाङज्ञान निवृत्तिभवति ततश्च हेयोपादेयोपेक्षणीय वरतष उपेक्षा बुद्धिर्वानोपादानोपेक्षाबद्धयोवा समदभवन्ति । तदनन्त सर्वत्रोपेक्षाबुद्धिः छद्मस्थस्य च हेय वस्तुतो निवृत्तिः उपादेय वस्तुष प्रवृत्तिरुपक्षणीय बस्तुषु घोपेक्षाऋद्धिरूप जायते एते च पर्याया आत्म द्रव्यस्यैव वर्तन्ते तस्मात् एतेषामात्मद्रव्य परिणामत्वात् आत्मद्रव्य तादात्म्येन स्वरूपतस्तेषां परस्पर भिन्नत्वेऽपि आत्मद्रव्यत्वेनाभिन्नतया तेषामज्ञाननिवृत्त्यादि फलानां प्रमाणतः कथञ्चिद् भिन्नाभिन्नत्वं सिद्धमिति फलितम् एवं च य एवं प्रमाता प्रत्यक्षादि प्रमाणेन किमपि वस्तु निश्चिनोति स एव तद्वस्तु हेयं चेत् परित्यजति, उपादेयं चेत् उपादत्ते, उपेक्षणीयं चेदुपेक्षते इति सर्वानुभव सिद्धमेतत् । महि अन्यः प्रमाता प्रमागेन वस्तु निश्चिनोति अन्यश्चात्मा हानोपादानोपेक्षाबुद्धि करोतीति वस्तुस्थिति : ।। ८ ॥
हिन्दी व्याख्या-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा प्रकारान्तर से भी प्रमाण और उसके फल में किसी अपेक्षा भिन्नता और किसी अपेक्षा अभिन्नता सिद्ध की है। इसमें उन्होंने ऐसा समझाया है कि प्रमाण रूप से परिणत हुई आत्मा ही फलरूप से परिणमन करती है इसलिये प्रमाण और उसके फल में न तो सर्वथा भिन्नता ही है और न सर्वथा अभिन्नता ही है किन्तु किसी अपेक्षा भिन्नता और किसी अपेक्षा अभिन्नता है, यही अनेकान्त सिद्धान्त यहाँ ध्रवरूप से अटल रहता है । जहाँ प्रमाण का लक्षण समझाया गया है वहाँ यही प्रकट किया गया है कि स्व और पर को निश्चय करने वाला ज्ञान ही प्रमाण है । ऐसे ज्ञानरूप से परिणमन इन्द्रियादिकों का नहीं होता है किन्तु आत्मा ही इस प्रकार के ज्ञानरूप से परिणत हो जाती है । क्योंकि आत्मा प्रमाता है इसलिये वही स्वपर व्यवसायात्मक ज्ञान के द्वारा पदार्थों को जानती है । यह जो स्वपर व्यवसायात्मकरूपता आत्मा के हुए ज्ञानरूप परिणमग में है वहीं अज्ञाननिवृत्ति है और इस अज्ञाननिवृत्ति का ही परिणमन हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि रूप है । इस पर यदि विचार किया जाय तो मूलरूप में यही चन्द्रप्रभा की तरह प्रकाशित होती हुई प्रतीति अनुभव में आती है कि ज्ञानरूप प्रमाण का और उसके फल का तादात्म्य सम्बन्ध एक उसी आत्मा के साथ है कि जिस आत्मा में प्रमाण रूप ज्ञान ने ज्ञय विषयक अज्ञान की निवृत्तिरूप साक्षात्फल और हानादि रूप परम्परा फल को उत्पन्न किया है। इस तरह जो आत्मा-प्रमाता स्वपर व्यवसायस्वभाव रूप प्रमाण ज्ञान के रूप में परिणत हुआ है वही उस प्रमाण ज्ञान के फलरूप से भी परिणत होता है। ऐसा नहीं है कि प्रमाण ज्ञान रूप से परिणत कोई आत्मा हो और उसके फलरूप से परिणत कोई दूसरी आत्मा हो। यही प्रमाण और उसके फल का एक आत्मा में तादात्म्य सम्बन्ध है। इसी सम्बन्ध की अपेक्षा प्रमाण और उसके फल में अभेद कहा गया है । जब ज्ञानावरणादि प्रतिपक्षी कर्मों के क्षय से आत्मा में अनन्तज्ञान-केवलज्ञान उत्पन्न होता है या इनके क्षयोपशम से आत्मा क्षायोशमिक ज्ञान से युक्त होती है । उस समय उस क्षायिक ज्ञानरूप केवलज्ञान के द्वारा या उस क्षायोपशामिक ज्ञान के द्वारा क्रमशः जो प्रकाश से अन्धकार के विलय की तरह