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न्यायरत्न: प्यायरत्नावली टीका: पचम अध्याय, सत्र ५
१२७ शत्रुमित्रादि पदार्थेषु हेयोपादेयेषु क्रमशो हानबुद्धिरुपादान बुद्धिरुपेक्षणीयेषु चेष्टानिप्टामाधनेषु जीर्णशीर्ण तुच्छ कन्थादिषु उपेक्षा बुद्धि रूप जायते तदेव परम्परा फलम् । केवलज्ञानस्य हानोपादान बुद्धिरूपं परम्परा फलं न संभवति केवलज्ञानशालिनः केवलिनः सकल पदार्थ साक्षात्कारित्वेन कृतार्थतया हानोपादान बुद्ध रसंभवात् । सर्वत्र चोपेक्षा बुद्ध रेव सद्भावात् ।। ४ ।।
अर्थ - केवलज्ञान को छोड़कर शेष प्रमाणों का परम्परा फल हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धिरूप कहा गया है. ।। ४ ॥
हिन्दी व्याख्या-समस्त ज्ञानों का साक्षात्फल अज्ञाननिवृत्ति रूप कहकर अब उन सब का पर म्परा फल क्या है इस प्रकार की विनेय जन की जिज्ञासा को शान्त करने के लिये सूत्रकार ने इस सूत्र का कथन किया है । इसके द्वारा वे समझा रहे हैं कि केवलज्ञान को छोड़कर शेष प्रत्यक्ष परोक्षभूत ज्ञानों का परम्पराफल हेय पदार्थों में अनिष्ट साधनभूत शत्रु आदिवों में-हान बुद्धि का होना, हितसाधकभुत मित्रादि जनों में उपादान बुद्धि का होना और जीर्ण-शीर्ण कथादिक पदार्थों में जो कि न इप्ट के साधनभूत हैं और न अनिष्ट के साधनभूत हैं उपेक्षाबुद्धि का होना है। केवलज्ञान असहाय ज्ञान है, यह त्रिकालवी रूपी और अरूपी समस्त पदार्थों को यगपन जानता है। अतः इस ज्ञानवाला केवली सकल पदार्थों का साक्षात्कारी हो जाने के कारण कृतार्थ बन जाता है । इससे उनमें हान और उपादान रूप बुद्धियाँ उद्गत नहीं होती है । किन्तु समस्त पदार्थों में उन्हें एक उपेक्षा भाव ही रहता है । इस उपेक्षा भाव में त्याग और आदान का भाव नहीं होता है । छद्मस्थजन को ही अपने ज्ञान का जब पदार्थों की तरफ उन्हें जानने का व्यापार होता है, तब उस नागार के अन्दर अज्ञान की निवृत्ति होते ही दान, उपान और उपेक्षाबुद्धि होती है। यदि वह पदार्थ हितकर नहीं है तो वह छोड़ दिया जाता है, और यदि वह अपने प्रयोजन का साधक है तो ब्रहण कर लिया जाता है। और यदि वह न प्रयोजनभूत है और न अप्रयोजनभूत है तो उपेक्षणीय हो जाता है ।। ४ ।।।
सूत्र-युगपत्सकल पदार्थ साक्षात्कारितया तस्य व्यवहितं फलमुपेक्षाबुद्धिरेव ॥ ५ ॥
संस्कृत टीका-उत्तानार्थमिदं सूत्रम् । दोषावरणायोनिश्शेषहानितो युगपत्सकल पदार्थ साक्षात्कारिताऽऽत्मनि प्रसिध्यति किमत्र चित्रम् । क्वचिदोषावरणयोनिश्णेपा हानिरस्त्यतिशायनात् । यथा सुवर्ण मलक्षयः युगपत्सकल पदार्थ साक्षात्कारितेव् सर्वज्ञता ।। ५ ।।
अर्थ-एक ही समय में सकल पदार्थों का साक्षात्कारी होने के कारण केवलज्ञान का परम्परा फल उपेक्षा बुद्धि-माध्यस्थ्यभाव ही है।
हिन्दी व्याख्या-सूत्र का अर्थ स्पष्ट है । दोषों एवं आवरणों की संपूर्ण रूप से हानि होने से आत्मा में एक ऐसे ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है कि जिसके बल पर आत्मा एक ही साथ सकल पदार्थों का साक्षात्कारी बन जाता है। दोष और आबरणों की आत्मा में समस्त रूप में हानि होती है यह साध्य अतिशायन हेतु से सुवर्ण में मलक्षय की तरह होता है । अज्ञान, राग और द्वष आदि दोष हैं। पूर्व दोष जिसके बल पर आत्मा में जागरूक या अपनी सत्ता में रहें बह आवरण है । यह आवरण ज्ञानावरणादि के भेद से आठ प्रकार का होता है । अज्ञानादि दोष आत्मा में आगन्तुक हैं, इसलिए ये आत्मा के विकारी भाव हैं। इसलिए इन्हें भावकर्म कहा गया है। इन्हीं का दूसरा नाम दोष है । दोष और आवरणों के सर्वथा अभाव हो जाने से ही आत्मा में वीतरागता के साथ सर्वज्ञता प्रकट होती है। जिस प्रकार सुवर्ण आदि द्रव्य में किटकालिमादिक बहिरङ्गमल और अन्तरङ्गमल की तरतमता-हीनाधिकता होने से शुद्ध सुवर्ण में उसका सर्वथा अभाव देखा जाता है ठीक उसी प्रकार से दोप और आवरण की भी हीनाधिकता हम संसारीजनों में प्रसिद्ध होती हई सर्वथा अभाबरूप में कहीं न कहीं अवश्य है। जहाँ इनका सर्वथा अभाव है वही