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ज्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : पंचम अध्याय सूत्र, ३-४ प्रश्न-वस्तु ज्यों ही ज्ञान के द्वारा गृहीत होती है वह हान, उपादान और उपेक्षा का विषय बन जाती है। फिर इसके अति और साशालकर क्या है।
उत्तर-हान, उपादान आदिरूप जो भाव होते हैं वे बिना वस्तु-विषयक अज्ञाननिवृत्ति हुए नहीं हो सकते हैं । "यह विष है" इस प्रकार से जब तक विष के सम्बन्ध में ज्ञान नहीं हो जाता है तब तक उसके सम्बन्ध में यह छोड़ने योग्य है ऐसा हान भाव नहीं होता है। अतः यह मानना चाहिए कि अज्ञान निवृत्ति रूप फल हुए बिना परम्परा फल नहीं होता है। हम लोगों को इनमें ऐसा पौर्वापर्य भाव जो प्रतीत नहीं होता है उसका कारण क्षणों की अतिसूक्ष्मता है, वह ज्ञात नहीं हो पाती है ॥ २ ॥
सूत्र-सर्व प्रमाणानामज्ञान निवृत्तिः साक्षात्फलम् ।। ३॥
संस्कृत टीका-सर्वेषां पूर्वोक्त प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणानां स्व-स्वविषयाज्ञान निवृत्तिः विपर्ययादि रूपाज्ञानविनाशः स्वपरनिश्चयरूपः साक्षात्फलं निगदितम् । एतेन सांव्यवहारिक पारमार्थिक भेदेन द्विविधस्य देशाशेषात्मना स्पष्टतारूप वैशालक्षण प्रत्यक्षप्रमाणस्य स्मरणप्रत्यभिज्ञातानुमानागमभेदेन पञ्चविधस्या स्पष्टता लक्षणा वैशद्यरूप परोक्षे प्रमाणस्य चाज्ञाननिवृत्तिरेव साक्षात्कलमवमन्तब्यमेतेषां व्यापारानन्तरं स्व स्व विषय सम्बन्ध्यज्ञान निवृत्ते रेव प्रथम सम्पद्यमानत्वात् । सा चाज्ञाननिवृत्तिः स्वपर व्यवसिति रूपैवावगन्तव्या ।। ३ ।।
अर्थ-समस्त प्रमाणों का साक्षात्फल अज्ञान का विनाश होना ही कहा गया है ।। ३ ।।
हिन्दी व्याख्या--अपने-अपने विषयभूत पदार्थों के सम्बन्ध में जो उनके जान लेने पर नाम, जाति आदि रूप से उनका भान होता है वही उनके सम्बन्ध की अज्ञान बी निवृत्ति होती है क्योंकि संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रूप अज्ञान का विनाश, जब तक वे ज्ञान के विषयभूत नहीं बनते हैं तब तक नहीं होता है। ज्ञान के विषयभूत बन जाने पर उनके सम्बन्ध में जो अभी तक संशयादि रूप अज्ञान चला आ रहा था वह नष्ट हो जाता है और यह जमुक पदार्थ है ऐसा बोध हो जाता है । इस प्रकार से यह अज्ञान की निवृत्ति ही समस्त ज्ञानों का चाहे वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान हो चाहे पारमार्थिक प्रत्यक्ष ज्ञान हो, साक्षात्फल कहा गया है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का लक्षण और पारमार्थिक प्रत्यक्ष का लक्षण पीछे के अध्याय में स्पष्ट कर दिया गया है। एकदेश से जो ज्ञान इन्द्रियों की सहायता लेकर पदार्थों को स्पष्ट जानता है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है और जो इन्द्रियों की सहायता के बिना विकल रूप से और सकल रूप से पदार्थों को स्पष्ट रूप से जानता है वह पारमार्थिक प्रलाक्ष है। परोक्ष प्रमाण का भी स्वरूप पीछे के अध्याय में स्पष्ट रूप से विवेचित हो चुका है। यह परोक्ष प्रमाण अस्पष्ट रूप से पदार्थों को जानता है। एसके स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ऐसे पांच भेद कहे गये हैं। स्मरणादि जब तक अपने-अपने विषय में व्यापार नहीं होता है तब तक उस विषय के अज्ञान का सदभाव बना रहता है । स्मरणादि ज्ञानों के द्वारा अपना-अपना विषय गृहीत हो जाने पर उस-उस विषय का अस्तरणादि रूप अज्ञाननिवृत्त हो जाता है। अतः यह अज्ञाननिवृत्ति ही उन-उन ज्ञानों का साक्षात्फल कहा गया है यह समस्त ज्ञानों द्वारा संपाद्य अज्ञाननिवृत्ति स्वपर व्यवसाय रूप होती मानी गई है ।। ३ ॥
सूत्र-केवलं विहाय प्रमाणानां परम्पराफलं हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः ॥ ४ ॥
संस्कृत टीका-सर्वेषां ज्ञानानामज्ञाननिवृत्तिरूपं साक्षात्फलमुक्त्वा परम्परा फलमेतेषां किमस्ति । इतिजिज्ञासां प्रशमयितुमाह-केवलं विहायेत्यादि-केवलमसहायं ज्ञानं रूप्यरू पिसकल पदार्थ युगपत् साक्षात्कारिज्ञानं केवल ज्ञानं विमुच्य सर्वेषां प्रत्यक्ष परोक्ष ज्ञानानां परम्परा फलं हेयोपादेयोपेक्षणीयेष पदार्थेषु हानोपादानोपेक्षाबुद्धिरूप ज्ञातव्यम् । एतेन स्वपरव्यवसायिना ज्ञानेनावधारण रूप व्यापार करणानन्तरं तद्विषयकाज्ञाननिवृत्ति रूपे साक्षात्फले जाते सति यत् तदनन्तरमिष्टानिष्ट साधनभूतेषु