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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ३२-३३ यही बात "एवमपि पदार्थः पर्यायरूप तयोत्पन्नो विनष्टो भवन्नपि" इत्यादि पाठ द्वारा सुवर्ण द्ध्य के दृष्टान्त को लेकर समझाई गई है। पर्यायों को ग्रहण करने वाला पर्यायाथिक नय है और द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्याथिकनय है । विशेष धर्म को पर्याय में परिगणित किया गया है और सामान्य धर्म को तिर्यग् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य में विभक्त किया गया है । अतः सामान्य धर्म को विषय करने वाला द्रव्याथिकनय है। एक काल में अनेक व्यक्तियों में पायी जाने वाली समानता का नाम तिर्यक् सामान्य और भिन्न-भिन्न काल में एक ही व्यक्ति में पायी जाने वाली समानता का नाम ऊर्श्वना सामान्य है । पदार्थों में पर्याय की ही अपेक्षा उत्पादव्ययरूप धर्म होते हैं और द्रव्य की अपेक्षा उत्पाद व्यय रूप धर्म नहीं होते हैं । किन्तु अवस्थानरूप ध्रुव-धर्म ही रहता है। इस प्रकार से विचार करने पर प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रुव धर्मों से युक्त होता हुआ अपने आप में सामान्य विशेष धर्मों को आत्मसात् किये हुए है । तभी वह प्रमाण का विषय बनता है। अन्यथा उसमें अमत्समता आने से वह प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण में से किसी भी प्रमाण का विषय नहीं बन सकता है ।।३१॥
सूत्र--सामान्य द्विविधं नियंगूर्वतासामान्य भेदात् ।।३।।
संस्कृत टीक:- उत्तानार्थमिदं सूत्रम् । तत्र मृत्तिका सुवर्णत्वादिरूपं सामान्यमूवता सामान्य गोत्वादि रूपं च सामान्य तिर्यक् सामान्यम् ॥३॥
सूत्रार्थ-सामान्य दो प्रकार का है-एक तिर्यक सामान्य और दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य ।
हिन्दी व्याख्या-इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट है। जो अनेक अपनी-अपनी पूर्व और उत्तर पर्यायों में सामान्य रूप से रहता है यह ऊर्ध्वता सामान्य है, जैसे-मृत्तिका। मृत्तिका कपाल, कोश, कुशूल, घट आदि रूप अपनी पूर्वकालीन और उत्तरकालीन समस्त पर्यायों में एक रस होकर रहती है, इसी प्रकार सुवर्ण भी कटक, कृण्डल. केयुर, हार आदि रूप अपनी पुर्वकालीन और उत्तरकालीन समस्त पर्यायों में व्याप्त होकर रहता है। अतः मृत्तिका द्रव्य और सुवर्ण द्रव्य आदि ऊर्ध्वता सामान्य रूप कहे गये हैं। तथा अपने-अपने व्यक्तियों में जो ममान रूप परिणाम वाला होता है वह तिर्यक् सामान्य है। जैसे स्खण्डी, मुण्डी गाय आदिकों में युगपत् रहने वाला गोत्व धर्म आदि ।।सू० ३।।
सूत्र-सदृश परिणाम रूपं तिर्यक् सामान्यम् ।।३३।।
संस्कृत टीका-शुक्ल श्याम शबलादि गो व्यक्तिषु अयं गौरयं गौरित्येवं सास्ना लागंल ककुद खुर विषाणादित्वेन सदृश परिणामशीलत्वात् गोत्वं तिर्यक् सामान्यमित्युच्यते । एवमेव नील रक्तादि घटादीनां परस्पर भिन्नत्वेऽपि "अयं घटः अयं घटः" इत्येवम् अनुगत प्रतीति नियामक तथा नील रक्तादि प्रति घट व्यक्ति सदृश परिणामितया घटत्वं रूपं तिर्यक् सामान्य मन्तव्यम् । अन्यत्रापि मनुष्यत्व पशुस्वादाबपि एवमेव ज्ञातव्यम् ।।३३।।
हिन्दी व्याख्या-३१वें सूत्र में जो सामान्य के दो भेद प्रदर्शित किये गये हैं, उनमें से तिर्यक् सामान्य का लक्षण निर्देश इस सूत्र द्वारा किया गया है। जो सामान्य-समान धर्म अपने प्रत्येक व्यक्तियों में रहता है वही तिर्यक् सामान्य है । यह तिर्यक सामान्य एक ही काल में अपने अनेक व्यक्तियों में रहता है । जैसे गोत्व यह तिर्यक् सामान्य अपने गायमात्र व्यक्तियों में रहता है। ऐसा नहीं है कि गोत्व केवल खंडी मुण्डी गायों में ही रहे अन्य लूली-लंगड़ी गायों में नहीं रहे। यद्यपि खंडी मुंडी आदि गायों में परस्पर भिन्नता है । परन्तु जाति को अपेक्षा उनमें भिन्नता नहीं है । अतः गोत्व जाति की अपेक्षा उनमें जो