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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याप, सूत्र ३४-३५
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समानता है वही तिर्यक् सामान है । गोल माहिती पो : स्ना-गल कंबल, लांगूल
छ, ककुद-कांधोर, खुर, विषाण----शृंग आदि को लेकर ही आती है। जितनी भी गायें होंगी, उन सब में ये सब ही सास्ना आदि धर्म-चिह्न पाये जायेंगे | इनके बिना गो व्यक्ति हो ही नहीं सकती। अतः गोत्व इन्हीं चिह्नों रूप होता है। जहाँ द्रष्टा इन चिह्नों को देखता है वहाँ वह यह गाय है ऐसा जान लेता है।
प्रश्न-अभी आपने कहा है कि जाति की अपेक्षा जहाँ समानता रहती है, वह तिर्यक सामान्य है । सो जाति की अपेक्षा तो समानता कनक, कुंडल, केयूर, हार आदिकों में भी रहती है । फिर सामान्य के तिर्यक सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य ऐसे दो भेद कैसे बन सकते हैं ? तिर्यक सामान्य ही एक भेद युक्तियुक्त प्रतीत होता है ।
उत्तर-सामान्य के ये दो भेद युक्तियुक्त हैं । आक्षेपार्ह नहीं हैं। जहाँ पर अपने-अपने भिन्नभिन्न व्यक्तियों में जिसके द्वारा युगपत-एक ही काल में समानता की प्रतीति होती है वहाँ बह प्रतीति तिर्यक् सामान्य बल से होती है । इस तरह भिन्न-भिन्न अनेक अपने आश्रयभुत व्यक्तियों में समानता की प्रतीति का जनक जो होता है वही तिर्यक् सामान्य है। मिर्यक् सामान्य अपने आश्रयभूत व्यक्तियों में केवल समानता के चिह्नों पर ही आकृष्ट रहता है । जन्य जनक आदि सम्बन्धों पर नहीं 1 तब कि ऊर्ध्वता सामान्य ऐसा नहीं है। वह अपने साथ जिनका कार्य कारण सम्बन्ध है उस सम्बन्ध को लेकर उनमें समानता की प्रतीति का जनक होता है। सुवर्ण से जितने भी आभूषण आदि बने हुए हैं, यदि सुवर्णत्व जाति की अपेक्षा उनका विचार किया जाये तो बे सब सुवर्ण रूप ही है। इस तरह अपनी आगे पीछे की सब पर्यायों में अनुगत प्रतीति का जनक जो सामान्य होता है वह ऊर्चता सामान्य है । इस तरह जो जाति अपने आथयभूत व्यक्तियों में समानता के व्यवहार की शिक्षा देती है वह तो तिर्यक् सामान्य और जो अपनी-अपनी आश्रयभूत पूर्वकालीन एवं उत्तरकालीन पर्यायों में समानता की शिक्षा देता है वह है ऊवता सामान्य । इस प्रकार से इन दोनों सामान्यों के लक्षणों में भेद हैं । अतः सामान्य के दो भेद मानने में कोई विरोध नहीं आता है । परस्पर भिन्न-भिन्न नील रक्त आदि घटों में घटत्व, भिन्न मनुष्य आदि व्यक्तियों में मनुष्यत्व ये सब तिर्यक सामान्य ही हैं। क्योंकि ये सव अनुगत प्रतीति और एक शब्द वाच्यता के नियामक उनमें होते है ।। ३३ ।।
सूत्र-पूर्वापर विवर्तव्याप्यूचंता सामान्यम् ।। ३४ ।। संस्कृत टीका--- उत्तानार्थमिदं सूत्रम् ।
हिन्दी व्याख्या-इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट है । विवर्त्त शब्द का अर्थ पर्याय है । आगे पीछे की अपनी पर्यायों में रहने वाला जो द्रव्य है वह ऊर्ध्वता सामान्य है । जैसे मृत्तिका द्रव्य । स्थास, कोश, कुशूल, घट
आदि जितनी भी मृत्तिका की पर्यायें हैं उनमें सबमें मृत्तिका द्रध्य का अन्वय रहता है अतः वह ऊर्ध्वता सामान्य है। ___ सूत्र-गुण पर्याय भेदाद्विशेषोऽपि द्विविधः ।। ३५ ।।
संस्कृत टीका-सामान्यस्वरूपं निरूप्य विशेषस्वरूपं निरूपयितुमाह-गुण-पर्याय भेदादिति । व्यावृत्ति प्रतीति जनको विशेषः स च गुण पर्याय भेदाद द्विविधः तत्र गोत्व घटत्वादि लक्षण तिर्यक् सामान्य विशिष्टेषु गोघटाषु शुक्लत्व श्यामत्व शबलत्व नीलत्व रक्तत्वादयो गुणागुण विशेष पद वाच्याः एवमेवोलता सामान्य स्वरूपेषु सुवर्णमृत्तिकादि द्रव्येषु कटककुण्डलादयः शरावोदञ्चनादयश्न पर्यायाः पर्याय विशेष पदवाच्याः ज्ञातश्याः।