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ग्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र २६ संस्पात टोका-ते-तदुत्पत्ति तदाकारते। तस्य प्रत्यक्ष परोक्षात्मकस्य ज्ञानस्य अंगे-विषय व्यवस्था प्रति कारणे न भवतः, व्यभिचरितत्वात् । सम्प्रति तदेव स्पष्टं कुर्व-ज्ञानं हि स्वाबरण क्षयोपकन यस्पातया बोलतमा दी. अखिनियतार्थ स्वस्थापयति, अतस्तद्व्यवस्था प्रति नदुत्पत्ति तदाकारते कारणभूते न भवतः, बौद्धा हि मन्यन्ते नीलादि ज्ञानं नीलादितः उत्पन्नत्वाद् नीलाद्याकारत्वाच्च नीलादेरेव प्रकाशकं भवति नान्यस्य धटपटादेः, तदर्थादनुत्पन्नस्य अतदाकारस्य च ज्ञानस्य सर्वान् प्रति साधारणतयाविशेषात् तस्य नीलादि प्रतिनियत बस्तु व्यवस्थापकत्वं न स्यात्-तस्मात् ज्ञानरूपस्य प्रमाणस्य प्रतिनियत वस्तु व्यवस्थापकत्वे तदुत्पत्ति तदाकारते एव नियामिके व्यवस्थापिके वा भवतः, नतु तदावरण क्षयोपशमादि रूप योग्यतेति तेषां मान्यता न समीचीना तयोर्यस्तत्व सामस्त्येन व्यभिचरित्वात् । तथाहि---प्रमाणभुतस्य ज्ञानस्य वि व्यस्ताभ्यामेव तदुत्पत्ति तदाकारताभ्यां प्रतिनियत वस्तु व्य आहोस्वित् समस्ताभ्यामेव ताभ्याम् । न तावत् प्रथमः पक्षः इन्द्रियादिभिव्यभिचारात् तदुत्पत्तेः तदाकारस्य च समानार्थ: नापि द्वितीयः पक्षः समानजातीय ज्ञानस्य समानान्तर ज्ञान प्राहकत्व प्रसंगात् । तन्न योग्यताया ऋतेऽन्यद् ग्रहण कारण पश्याम इति ।।सू० २६।।
हिन्दी व्याख्या-"यद्यपि २७वें मूत्र द्वारा यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि ज्ञान अपने आवारक कर्म के क्षयोपशम आदि से जन्य योग्यता के बल से ही जय का प्रकाशन करता है परन्तु फिर भी इसी बात को और भी विशेष रूप से परिस्फुट करने के लिए सूत्रकार ने इस सूत्र की रचना की है। अतः इस सम्बन्ध में पुनरुक्ति दोष का यही आह्वान नहीं हो सकता है। तथा---एक बात यह भी है कि गुरुजन मन्दबुद्धि वाले शिष्यजनों को जैसे भी बोध हो उस रूप से उन्हें समझाने का प्रयास करते हैं. इसीलिए इस सूत्र द्वारा २७वे सूत्र में कथित विषय को विशेष रूप से समझा रहे हैं। इसमें यह समझाया गया है कि बौद्धों ने जो तदुत्पत्ति-तदाकारता को लेकर ज्ञान अपने विषय का नियामक होता है ऐसा माना है उस पर ऐसा कहा गया है कि वे तदुत्पत्ति और तदाकारता दोनों ही तदंग प्रत्यक्ष रूप ज्ञान के अपने ज्ञेय को जानने के प्रति व्यवस्थापक नहीं है क्योंकि इन दोनों के ज्ञान के साथ स्वतन्त्र रूप से अथवा साथ-साथ रहने पर भी योग्यता को माने बिना व्यभिचार दोष देखा जाता है।
जब बौद्धों की ओर से ऐसा कहा गया है कि नीलादि को विषय करने वाला नीलज्ञान नीलरूप पदार्थ से उत्पन्न होता हुआ और उसके आकार का होता हुआ ही उस नील पदार्थ को विषय करता है घटपटादि को नहीं क्योंकि वह उससे उत्पन्न नहीं हुआ है और न उसके आकार का ही हुआ है। इसलिए नील ज्ञान नीले पदार्थ को ही जानता है। नीले पदार्थ को जानते समय वह और दूसरे घटपटादि पदार्थों को नहीं जानता है । इस प्रकार से हमारे यहाँ अपने-अपने विषय को ज्ञान में प्रतिनियत करने की व्यवस्था बन जाती है । पर जो ऐसा नहीं मानते हैं उनके यहाँ अर्थ से अनुत्पन्न और उसके आकार के नहीं हए ज्ञान में इस प्रकार की विषय व्यवस्था नहीं बनती है। अतः एक पदार्थ को जानते समय उनका ज्ञान और भी अनेक पदार्थों को जानने के प्रसंग वाला क्यों नहीं होगा? अवश्य ही होगा अतः इस अप्रत्याशित प्रसंग प्राप्ति को हटाने के लिए तदुत्पत्ति और तदाकारता को ही नियामक और व्यवस्थापक मानना चाहिए, तदावरण क्षयोपशमरूप योग्यता को नहीं। इस प्रकार का बौद्धों की ओर से तदावरण
१. अर्थेन घटयत्येना नहि भुक्त्वार्थ रूपताम् ।
तस्मात्प्रमेयाधिगतेः प्रमाण मेयल्पता ॥१॥