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स्पायरत्न : न्यायरत्नावली टीका चतुर्थ अध्याय, सूत्र ३०
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क्षयोपशमरूप योग्यता पर प्रहार किया तो सिद्धान्तवादी की ओर से यह कहा गया है कि तदुत्पत्ति और तदाकारता को लेकर भी ज्ञान अपने ज्ञ ेय पदार्थ का बिना तदावरण क्षयोपशमरूप योग्यता के न नियामक होता है और न व्यवस्थापक होता है । देखो-ज्ञान जिस प्रकार पदार्थ से उत्पन्न होता है उसी प्रकार वह इन्द्रियों से भी उत्पन्न होता है अतः तदुत्पत्ति के बल से उसे इन्द्रियों को जानने वाला होना चाहिए। और यदि वह इन्द्रियों को जानता है तो फिर आँख में लगे हुए अजन को भी उसे जान लेना चाहिए । इस तरह आँख में अञ्जन लगाकर जो दर्पण उठाकर लोग उसे देखते हैं सो यह क्यों ? अतः तदुत्पत्ति सम्बन्ध के रहने पर भी वह ज्ञान में विषय का व्यवस्थापक नहीं होता है यही बात इससे प्रमाणित होती है । और यदि तदाकारता विषय व्यवस्थापिका ज्ञान में होती तो फिर एक घट का ज्ञान अपने आकार के समस्त घटों का ज्ञाता हो जाना चाहिए, परन्तु नहीं होता है । अतः इससे भी यही चरितार्थ होता है कि तदाकारता भी विषय व्यवस्था कराने में अकिञ्चित्कर है। और यदि ऐसा माना जाय कि तदुत्पत्ति और तदाकारता ये दोनों जिस ज्ञान में होती हैं वहीं पर ये विषय व्यवस्थापक होती हैं तो फिर जो ज्ञान प्रथम ज्ञान से उत्पन्न होता है और उसके आकार का होता है वह ज्ञान अपने उत्पादक ज्ञान को जानने वाला बौद्धों ने क्यों नहीं माना है ? इस तरह से अलग-अलग भी और समस्त भी तदुत्पत्ति और तदाकारता ये दोनों व्यभिचरित प्रकट की गई हैं। अतएव यही मानना युक्तियुक्त है कि प्रत्येक ज्ञान प्रतिनियत पदार्थों को अपने आवरण रूप कर्म के क्षयोपशम रूप सामर्थ्य से ही जानता है। अतः पदार्थों को प्रतिनियत रूप में जानने वाले ज्ञान में यही कारण है ऐसा ही मानना चाहिए। अन्य और कोई कारण नहीं मानना चाहिए ।
प्रश्न -- पदार्थों के जानने में कारण तो आलोकावि भी होते हैं फिर ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि और कोई कारण नहीं मानना चाहिए ?
उत्तर-- आलोकादि पदार्थ की तरह ही ज्ञान में कारण नहीं होते हैं-क्योंकि वे परिच्छेद्य है । जो परिच्छेय होता है वह अन्धकार की तरह उसका कारण नहीं होता है । सू० २६ ॥
सूत्र - प्रमाण विषयी भूतोऽर्थः सामान्य विशेषाद्यनेकान्तात्मकः ।। सू० ३०||
संस्कृत टीका–ज्ञानस्य प्रतिनियत वस्तु व्यवस्थापकत्वं स्वावरण क्षयोपशमरूप योग्यतया प्रतिपाद्य सम्प्रति प्रमाणस्य विषयीभूतार्थं स्वरूपं सूत्रकारः प्रकाशयति-- प्रमाण विषयोभूतोऽर्थ इत्यादिना -- तथा च प्रमाणभूत ज्ञानेन परिच्छिद्यमानो गवादि पदार्थ: सामान्यविशेषरूपानेकान्तात्मको भवति "अयं गौः अर्थ गौः" इत्याकारकानुगत बुद्धि नियामकत्वं सामान्यम् । अयं गौरस्माद् गोभिन्न इत्याकार व्यावृत्ति बुद्धि नियामकत्वं विशेषः । तत्र गौरित्युक्ते शुक्ल कृष्णादि गोषु विषयेषु प्रवर्त्तमानं प्रत्यक्षं तद्गतं सामान्यकारं गोत्वं व्यावृत्ताकारं च व्यक्तिरूपं युगपदेव प्रकाशयदुपलब्धम् । एवमपि परोक्षम् । न च वाच्यं सामान्य मात्र विषयं परोक्ष प्रमाणमिति प्रत्यक्षस्यैव तस्यापि सामान्य विशेषात्मक वस्तु विषयत्वात् सामान्यं विहाय केवलं विशेषो विशेषं वा विहाय केवलं सामान्यं न कुत्रापि उपलभ्यते । एकान्ततस्तयोः पार्थक्यासंभवात् । तथा चोक्तम् - "निर्विशेषं हि सामान्यं भवत् खर विपाणवत् सामान्य रहितत्वेन विशेषास्तद्वदेव हि ॥सू० ३० |
१. "स्वतोऽनुवृत्ति व्यतिवृत्तिभाजी भावा न भावान्तरनेयरूपाः । परात्मतत्वादतथात्मतत्वाद् द्वयं वदन्तोऽकुशलाः स्वलन्ति ॥ "
-- (स्याद्वाद मंजर्याम्)