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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र २८-२६ कि जब वह उनसे उत्पन्न होता हैं और उनके आकार का होता है । इस विषय को पुष्ट करने के लिये वे कहते हैं जो ज्ञान का कारण नहीं होता है वह उसका विषय नहीं होता है। उनकी इस मान्यता को हटाने के लिये और अपनी मान्यता को स्थापित करने के लिये ही यह सूत्र सूत्रकार ने कहा है।
इसके द्वारा यह समझाया गया है कि जिस प्रकार दीपक अपने द्वारा प्रकाश्य घट-पटादि पदार्थों से उत्पन्न नहीं होता है और न उनके आकार को ही धारण करता है फिर भी वह उनका प्रकाशन करता है इसी प्रकार ज्ञान भी अपने द्वारा ज्ञेय घट-पटादिकों से उत्पन्न नहीं होता है और न उनके आकार को ही धारण करता है फिर भी वह अपनी योग्यता के अनुसार उनका प्रकाशन करता है ।
प्रश्न-पदि ऐसी ही बात है तो फिर यह नियम तो नहीं बन सकता है कि घट ज्ञान का घट ही विषय हो पट नहीं, चाहे जो भी विषय उस ज्ञान का हो सकता है ।
उसर ऐसा कैसे हो सकता है ? ज्ञान जिस पदार्थ को जानेगा वही पदार्थ उस ज्ञान का विषय होगा । फिर घट के जानने के समय वह पट को जानने वाला क्यों नहीं होगा ऐमी आशङ्का ही कैसे उठ सकती है ?
प्रश्न---ऐसी आशङ्का क्यों नहीं उठ सकती है-उठ सकती है और इस प्रकार से कि-ज्ञान जब घट से तो उत्पन्न हुआ नहीं है और घट को जानता है तो इसी प्रकार वह पट से भी उत्पन्न नहीं हुआ है तो पट को भी जानना चाहिये । हमारे यहाँ तो यह नियम सध जाता है। क्योंकि वह घट से उत्पन्न हुआ है इसलिये घट को ही जानता है, पट से उत्पन्न नहीं हुआ है इसलिये पट को नहीं जानता है।
उत्सर-यदि ऐसा नियम ही अङ्गीकार किया जावे तो फिर पूर्व जान क्षण से उत्तरकालिक ज्ञान जो उत्पन्न होता है उस उत्तरकालीन शान क्षण के द्वारा पूर्व ज्ञानक्षण जाना जाना चाहिये। परन्तु वह उसके द्वारा जाना जाता है ऐसा बौद्ध-सिद्धान्त नहीं मानता है। क्योंकि इस प्रकार की मान्यता में क्षणिकवाद के ध्वस्त होने का प्रसङ्ग प्राप्त होता है। इसलिये ज्ञान घट से-अपने विषय से--उत्पन्न होता है इसीलिये उसे जानता है ऐसा कथन नहीं बनता है।
प्रश्न-तो फिर विषयाजन्य के अभाव में यह प्रतिनियम कैसे बनता है कि घट ज्ञान का घट ही विषय है, पट नहीं।
उत्तर-इस नियम के बनने में कोई बाधा नहीं है। विषयाजन्य होने पर भी ज्ञान में अपने आवारक कर्म के क्षयोपशम आदि के कारण इतनी ही योग्यता है कि वह उस समय घट को ही जानता है.--पट को नहीं। क्योंकि उस समय' में उसमें इतनी योग्यता नहीं है। इसी सब चर्चा को हृदयङ्गम करके यहाँ सूत्र में "स्वावरण क्षयोपशमादिना" यह पद रखा गया है। इस विषय में और भी अधिक विवेचभ हो सकता है परन्तु प्रथमोपयोगी होने से इतना ही स्पष्टीकरण इस सूत्र के सम्बन्ध में पर्याप्त है। अतः यही मानना युक्तियुक्त है कि ज्ञान विषय से अंजल्य एवं अतदाकार होकर भी अपने विषय का प्रकाशक होता है। यह बात हम दीपक में देखते हैं । दीपक जिन पदार्थों का प्रकाशक होता है वह न तो उनसे उत्पन्न होता है और न उनके आकार को ही धारण करता है-फिर भी वह उनका प्रकाशक होता है ।। २५ ॥
सूत्र--न ते तदङ्गे नयोय॑स्तसामस्त्येन व्यभिचरितत्त्वात् ।। २६ ॥