________________
न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका चतुर्थ अध्याय, सूत्र २४
| १०६
आवश्यकता नहीं है । बुद्धिमान् जन ही स्वयं इसका विचार करलें । इस प्रकार से ये मूलोक्त सात भंग ही एक ही वस्तु में किसी एक धर्म सम्बन्धी प्रश्न के अनुरोध से निष्पन्न होते हैं तथा ये चन्द्रप्रभा की तरह स्वयं ही प्रकाशशील हैं इसीलिए इनसे वस्तुतत्त्व को जानने में प्रकाश मिलता है। इनका सहारा लिये विना वस्तुतत्त्व का तलस्पर्शी ज्ञान नहीं हो सकता है। तलस्पर्शी ज्ञान हुए बिना अन्यतीर्थिक जनों में अपनी-अपनी मान्यता को लेकर जो वितण्डावाद खड़ा हो गया है वह शान्त नहीं हो सकता है । और इसकी शान्ति हुए बिना पृथ्वी पर अमन-चैन नहीं बरस सकता है। यही बात संकेत के रूप में "कौमुदं च वर्धयन्ति" इस पाट के द्वारा यहाँ प्रकट की गई है। अतः पारस्परिक सिद्धान्त विरोध को दूर करने बाले सात भंगों का आश्रयण करना आवश्यकीय है ||२३||
सूत्र-धर्म-धर्मं प्रति सप्तभंग सद्भावतोऽनन्ताः सप्तभंग्यः ||२४||
संस्कृत टीका - एकस्मिन् वस्तुनि विधेय निषेध्यानन्त धर्म सत्वेनानन्त भंग सम्भवे कथं सप्त भंग्येवेति न त्रयम् प्रतिपर्याय सप्तभंगीमनुसृत्यानन्त पर्यायेष्वनन्त सप्तभंगीनामेव संभवात् । सप्त भंगीतिकथनं तु सामान्यतो विज्ञेयं प्रतिधर्मं प्रतिपाद्यस्य सप्तविधजिज्ञासोदयेन प्रश्नानां सप्तविधत्वात् । जिज्ञासायागपि सप्तभिग्येन शाम् सप्तविध सन्देहोदये च कारणं तद्विषयभूतधर्माणां सप्तविधत्वं विशेयम् । अतोऽनन्त सप्तभंगीनामिष्टत्वात् तत्प्रसंगापादनेन नाम्मभ्यं काचिदपि विभीषिका प्रदर्शनीयेति ।
सूत्रार्थ - यह तो पहले ही समझा दिया गया है कि प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं और उनमें से किसी एक धर्म के विधि और निषेध का आश्रय करके सप्तभंग बनते हैं। ऐसी स्थिति में शंकाकार ने ऐसी शंका उपस्थित की है कि जब एक-एक धर्भे की विधि और उसके निषेध को लेकर ७ भंग बनते हैं कि जिसे आप सप्तभंगी कहते हैं तो फिर इस तरह से अनन्त सप्तभंगी आपको माननी पड़ेगी तो इसके उत्तर में कहा गया है कि इस प्रकार के अनन्त सप्तभंगी के प्रसंग प्राप्त होने से हम डरते नहीं हैं। क्योंकि हमें अनन्त सप्तभंगी मानना इष्ट है तो फिर सात भंगों का जो समाहार है वह सप्तभंगी है ऐसा जो आपने कहा है उसका क्या मतलब है ? इस आपके कथन से तो हम यही समझ सके हैं कि भंग सात ही होते हैं । कमती अधिक नहीं। पर यहाँ तो आप सप्तभंगी को अनन्त होने की बात प्रकट कर रहे हैं । सो क्या कारण है ?
उत्तर - भङ्ग तो सात ही होते हैं। कमती-बढ़ती नहीं, पर इससे यह बात थोड़े ही प्रतीत होती है कि सप्तमी अनन्त नहीं होती है। जब वस्तु अनन्त धर्मों का एक अखाड़ा है तो उसमें अनन्त धर्मरूप पहलवानों की कुश्ती होती ही रहती है इसे तो कोई रोक नहीं सकता है। उसमें कोई पहलवान किसी पहलवान को और कोई पहलवान किसी पहलवान को पछाड़ता ही रहता है । वस्तुवर्ती अस्तित्वरूप पहलवान जब नास्तित्वरूप पहलवान के साथ भिड़ता है तो वह अपनी द्रव्यादिरूप चतुष्टय की शक्ति के बल पर नास्तित्व रूप पहलवान को परास्त कर विजयी बन जाता है और जब पर- द्रव्यादि चतुष्टय की शक्ति के नल पर नास्तित्वरूपी पहलवान अस्तित्वरूपी पहलवान के साथ भिड़ता है तो वह उसे परस्त कर देता है। इस तरह विजयश्री कभी अस्तित्व के गले मैं और कभी नास्तित्व के गले में स्वतन्त्र रूप से वरमाला डालकर वरण करती है। ध्रुवरूप से यहाँ विजयश्री एक के ही पक्ष में पक्षपातिनी नहीं हो पाती है । और जब यह दोनों की एक सी बलवत्ता का विचार कर संवरण करने की ओर झुकती है तो उस समय क्रमशः ही वह उन्हें संवरण करती है एक साथ