________________
न्यायरल : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ६
|६७ प्रश्न-प्रथम भङ्ग द्वारा एवं द्वितीय भङ्गद्वारा जो बात कही गई है--वही बात तृतीय भङ्गद्वारा कही गई है । सो ऐसा कहने मे तो पुनरुक्ति दोष आता है।
उत्सर-ऐसा नहीं है । प्रथम भङ्ग में विधि प्रधान की गई है, निषेध धर्म गौण किया गया है द्वितीय भङ्ग में निषेध प्रधान किया गया है और विधि गौण की गई है । तृतीय भङ्ग में क्रमशः इन दोनों को ही प्रधान किया गया है । अतः प्रथम भङ्ग, द्वितीय भङ्ग और तृतीय भङ्ग ये सब स्वतन्त्र भङ्ग है किसी का किसी से मेल नहीं बैठता है।
प्रश्न-जब सूत्र में ऐसा कहा गया है कि वस्तु के किसी एक धर्म की विधि और निषेध को लेकर पूर्वोक्त सात भङ्ग बनते हैं तो यह बात स्वतः ही प्रतीति में आ जाती है कि विवक्षा की विचित्रता से ही ऐसा हो सकता है । जो वस्तु किसी अपेक्षा अस्तिरूप है, वही किसी दूसरी विवक्षावश अस्तिरूप नहीं भी है । फिर इस बात को जो कि स्वतःसिद्ध भी प्रकट करने के लिये सूत्रकार ने सूत्र में "आदेश भेदात्" ऐसा क्यों कहा?
उत्तर-ऐसा इसीलिए कहा गया है कि वस्तु में ये सात भङ्ग इसी विवक्षा की विचित्रता से ते हैं । यह बात यद्यपि विचार करने पर स्वतः प्रतीति कोटि में आ सकती है परन्तु फिर भी अन्य तीथिकों ने इस सप्तभङ्गी पर जो "नैकस्मित्र संभवात" ऐसा कहकर असंभवता का दोष थोपा है बह "आदेश भेदात्" इस पद के द्वारा यह इस बात को प्रकट कर देता है कि इस सप्तभती पर यह असंभवता का दोष किसी भी प्रकार से थोपा नहीं जा सकता है | क्योंकि परस्पर विरुद्ध धर्मों का समावेश एक ही वस्तु में विवक्षा की अपेक्षा से ही होता है एक ही अपेक्षा से नहीं, अतः इसमें असंभवता की कोई बात ही नहीं है।
प्रश्न-क्या जो वस्तु अस्तिरूप है वही नास्तिरूप भी हो जाती है ? यदि हो जाती है तो फिर इससे तो वस्तुगत धर्मों की कोई निश्चित स्थिति नहीं सध सकती है । और धर्मों की निश्चित स्थिति न सध सकने के कारण वस्तु व्यवस्था भी बिलकुल अस्त-व्यस्त हो जाती है। . .. उसर-ऐसा कहना शोभास्पद नहीं है क्योंकि यह पहले समझाया जा चुका है कि वस्तु को जो अनन्त धर्मों का पिण्ड कहा गया है वह कालिक सहभावी गुणों और क्रमभावी पर्यायों की अपेक्षा लेकर ही कहा गया है। अतः वे वस्तुगत धर्म उस वस्तु में अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा ही अवमाहित होकर रहते हैं। एक स्वरूप दूसरे स्वरूप में परिणत नहीं होता है । वस्तु-व्यवस्था के अस्त-व्यस्त होने की बात तो तब आती जब कि वस्तुगत धर्मों में परस्पर में एक-दूसरे के रूप में बदलना होता । परन्तु ऐसा तो है नहीं। सब ही धर्म अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार हर एक बस्तु में रहते हैं और उन्हीं का पिण्ड बह वस्तु है।
इस तरह के इस विचार से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि हर एक पदार्थ अपने-अपने एक धर्म के सम्बन्ध में सात भंगों वाला होता हुआ अनन्त धर्मों की अनन्त सप्तभङ्गी से आलिङ्गित हो रहा है । इसी बात की सूचनार्थ सूत्र में "सप्तमंग्या" पद निवेशित किया गया है ॥ ६ ॥
१. शाबर भाष्ये । । न्या०टी०१३