________________
न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ४ अकाश, धर्म, अधर्म आदि सभी द्रव्य आप्त की कोटि में परिगणित होने लगेंगे। क्योंकि इन सबमें वीतरागता है । परन्तु इन्हें वीतराग होने से आप्त तो कहा गया नहीं है । अतः इसके साथ सर्वज्ञता भी होनी चाहिये । सो ये पाषाणादिक वीतराग होने पर भी सर्वज्ञ नहीं है। इसलिये आप्त की कोटि से बहिर्भूत हो जाते हैं।
प्रश्न--तो फिर वीतराग सर्वज्ञ होने पर ही आप्त होता है ऐसी बात मानने पर क्या आपत्ति है?
उत्तर-आपत्ति है और वह इस प्रकार से है-सिद्ध परमात्मा वीतराग सर्वज्ञ पद विशिष्ट हैं । परन्तु हितोपदेशक नहीं होने से उन्हें आप्त की कोटि में नहीं लिया गया है। अतः वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेष्टा ये ३ विशेषण आप्त के यहाँ सूत्रकार ने कहे हैं।
वचन में अप्रमाणता के कारण रागद्वष आदि होते हैं। बीतराग में ये दोष होते नहीं हैं । अतः वीतरागता से सर्वज्ञता आती है, अतः बीतराग होने पर एवं सर्वज्ञ होने पर जो हितोपदेशी होता हैतीर्थ प्रवर्तक होता है बही आप्त है। लौकिक व्यवहार की अपेक्षा माता-पिता आदि जो लौकिक जन हैं वे भी आप्त हैं। क्योंकि वे अपने-अपने पुत्रों को हित का उपदेश देते हैं, अहित से हटाते हैं, पदार्थों का झान कराते हैं। गुरुजन शिक्षा देकर जीवन को उचित ढग से सञ्चालन करने का मार्ग प्रदर्शित करते हैं, आदि ।।३।।
सूत्र-स्वार्थप्रकाशनशक्तिः शब्दानां सहजासंकेत सहकतया तयाऽर्थ बोधः ।। ४ ।।
संस्कृत का- आप्त वाक्याज्जातस्यार्थज्ञानस्यागमप्रमाणत्वेन प्रतिपादितत्त्वात्तत्र शब्दानामर्थबोधकताशक्त: स्वाभाविकत्वेऽपि सङ्केत सह कृतयैव सयाऽर्थबोधो भवतीति प्रतिपादयति-एवं च घटपटादि शब्दानां स्वस्ववाच्यार्थ विषयक बोधजनन सामर्थ्य नैसर्गिक वर्तते न त्वीपाधिकं यथाजनेरोष्ण्यं दाहजननं च जलस्य शैत्यं शैत्यजननं च इत्यादि, एतदेवार्थ बोधन जनन सामर्थ्य शक्तिरित्युच्यते तथा घ यथा चक्षुरादीन्द्रियाणां रूपादिग्रहणयोग्यता अनादिकालतः सिद्धत्वात्स्वाभाविकीत्युच्यते एवमेव शब्दानामपि अर्थ प्रतिपादन शक्तिः अनादिकालतः सिद्धत्वात् स्वाभाविकी वर्ततेः किन्तु यथैव रूपादिग्रहणइचयोग्यताया क्ष रादीनामनादिकालतः जिद्धत्वेऽपि रूपादिग्रहणे आलोकादेः सहकारितया अपेक्षा भवति तथैव शब्दानामपि अर्थबोधन योग्यतायाः अनादिकालतः सिद्धत्त्रेऽपि अर्थबोधने सहकारितया संकेतगुणस्थापेक्षा भवति अतएव शब्दः सहज योग्यता संकेतवशाद्धि वस्तु प्रतिपत्ति हेतुर्जायते । नासतीशक्तिः केनापि तत्र कत्तपार्यते । अतः सा तत्र स्वाभाविकी प्रतिपादिता।
सूत्रार्थ--शब्दों में अपने वाच्यार्थ को प्रकाधान करने की शक्ति स्वाभाविक है। परन्तु फिर भी वह संकेत से सहकृत होकर ही अपने वाच्यार्थ का प्रकाशक होता है ।
हिन्दी व्याख्या-जिस प्रकार अग्नि में दाहजनकता एवं उष्णता स्वाभाविक होती है. जल में शीतलता और शीतलताजनकता स्वाभाविक होती है, उसी प्रकार घट पट आदि शब्दों में भी अपने-अपने याच्याथं को प्रकट करने की योग्यता-शक्ति स्वाभाविकी है, औपाधिकी नहीं है । यही अर्थ बोध कराना शक्ति शब्द द्वारा कहा गया है ।