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भ्यायरत्त : न्यायरत्नावली टीका : चतुर्थ अध्याय, सूत्र ३
८५ प्रश्न-आत्मा में वीतरागता कैसे प्रकट होती है ? जसर-आत्मा में वीतरागता रागद्वेष आदिका के सर्वथा प्रलय से प्रकट होती है। प्रपन-रागद्वेष आदिकों का सर्वथा प्रलय कहाँ पर होता है ?
उत्तर-रागद्वोष आदिकों का सर्वथा प्रलय १२वं गुणस्थान में होता है। इसका क्रम इस प्रकार से है । सर्वप्रथम मोहनीयकर्म का सर्वथा अभाव होता है, और इसके अभाव से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरराय का अभाव एक अन्तर्मुहूर्त में हो जाता है । यह सब काम १२वें गुणस्थान के अन्त तक हो जाता है । वहाँ पर आत्मा छद्मस्थ वीतराग कहलाने लगता है।
प्रश्न-छद्मस्थ वीतराम का क्या अर्थ है ?
उत्तर-जन तक आत्मा में केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है तब तक वह छद्मस्थ वीतराग कहा जाता है।
प्रश्न- केवल ज्ञान कहाँ पर उत्पन्न होता है ?
उत्तर-केवलज्ञान १२ के अन्त १३वें गुणस्थान में प्रकट हो जाता है । इसी अवस्था का नाम सर्वशता प्राप्त होना है।
प्रश्न- सर्वज्ञना प्राप्त होते ही क्या मुक्ति प्राप्त हो जाती है ?
उत्तर- नहीं; सर्वज्ञता प्राप्त परमात्मा दो प्रकार के होते हैं-एक सकल परमात्मा और दूसरे विकल परमात्मा । इनमें जिनके कल-शरीर वर्तमान है ऐसे परमात्मा का नाम सकल परमात्मा है, और जिनके यह शरीर नहीं है ऐसे सिद्ध निकल परमात्मा हैं। सकल परमात्मा को ही अग्हन्त, जिन, सर्वज्ञ आदि रूप से कहा गया है । इस सब प्रकरण को हृदयङ्गम करके ही यहाँ पर टीकाकार ने "तीर्थकरादेः परमार्थतो ह्याप्तत्वं सिद्ध यति" ऐसा कहा है।
प्रश्न-आपके इस कथन से हम यह तो समझ सके हैं कि वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी ही आप्त होता है । परन्तु वह आप्त तीर्थकर ही कहा गया है, अन्य मुक्ति प्राप्त केवली परमात्मा नहीं । इसका क्या कारण है ?
उत्तर--जितने भी जीव परमविशुद्धि को प्राप्त कर सकल परमात्मा बने हैं, वे सब ही यद्यपि आप्त की कोटि में आते हैं परन्तु जो मुख्य रूप से तीर्थङ्कर परमात्मा को ही आप्त कहा गया है उसका कारण तीर्थङ्कर नामकर्म की प्रकृति के उदय वाले होकर जिन्होंने चतुर्विध तीर्थ की प्रवृत्ति की है ऐसे आप्त ऋषभदेव से लेकर श्री महावीर पर्यन्त २४ ही हुए हैं। अतः शासन प्रवृत्ति के कर्ता होने से उन्हें ही मुख्य रूप से आप्पा कहा गया है, अन्य केवलियों को नहीं। यही बात "तीर्थकरादेः" पद द्वारा अभिव्यक्त की गई है । यही कारण है कि पञ्चनमस्कार मन्त्र में सर्वप्रथम 'णमो अरिहंताणं" ऐसा कहा गया है। .
प्रश्न-धीतराग-निर्दोष ही आप्त होता है ऐसा माने तो क्या आपत्ति है?
उत्तर-तब तो “यत्र-यत्र निर्दोषत्वं-वीतरागत्वं तत्र तत्राप्तलम्" जहाँ-जहाँ निर्दोषता - वीतरागता होती है वहाँ-वहाँ पर आप्तता होती है ऐसी व्याप्ति बनेगी, और ऐसी बन जाने पर पाषाण,