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न्यायरत्न : न्यायरस्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ७२-७३
कारणों द्वारा उसका विनाश कर दिया जाता है तब उस घट का कपालमाला के रूप में परिणमन हो जाता है। इस तरह जो कपालमाला के रूप में उसका परिणमन हुआ है वह पूर्वाकार का परित्याग रूप-घटाकार का विनाश रूप ही हुआ है । यही घट का प्रध्वंसाभाव है । इस प्रध्वंसाभाव की उत्पत्ति विनाश कारणों द्वारा ही हई है। अतः वह सादि है और अब त्रिकाल में भी पुनः उस घट की उत्पत्ति होने वाली नहीं है। इसलिये वह प्रध्वंसाभाव अनन्त कहा गया है। क्योंकि प्रध्वंसाभाव उत्पन्न हुए पदार्थ का ही होता है, अनुत्पन्न पदार्थ का नहीं, तथा उतान हुआ प्रध्वंसाभाव विनष्ट नहीं होता, सदा काल बना रहता है। इसलिए वह अनन्त कहा गया है ।। ७ ।।
सूत्र-पर्यायापायान्तर व्यावृत्तिरन्योन्याभाव: साविः सान्तश्च ।। ७२ ।। __ संस्कृत टीका--एकस्मात् पर्यायात् अन्यपर्यायाणां व्यावृत्तिः-व्यावर्तनम् अन्योन्याभावःइतरेतराभाव इति यावत्, यथा "घटो न पटः' इत्यत्र घटपर्यायस्य पटात्मक पर्यायान्तरात् व्यावृत्तत्वेन पटात्मक पर्यायान्तरात् यत् तस्य चपर्यायस्य व्यावर्त्तनं भवति स एव घटे पटान्योन्याभाव उच्यते, "घटः पटाद्भिन्नः, पटो घटादिन्नः" इत्येवमादि शब्दै रन्योन्याभावस्यामिलापो भवति । एवमेव तद् घटम्य घटान्तराद्व्यावृत्तिरपि अन्योन्याभाव एव । अन्योन्याभावो हि पर्यायग्वेन भवति, न द्रव्येषु । तत्रात्यन्ताभावस्येष्टत्वात्, यथा पुद्गल जीव द्रव्ययोः । इदमत्र हृद्यम्-एक स्मिन् द्रव्ये अनन्ताः पर्यायाः सन्ति, तेषु पारस्परिको योऽभावः सोऽन्योन्याभावः, अन्यस्य अन्यस्मिन्न भावोऽन्योन्याभाव इति तद्व्युत्पत्तः ।
हिन्दी व्याख्या-एक पर्याय से जो दूसरे पर्याय की भित्रता है, वहीं अन्योन्याभाव है । अर्थात् एक गर्याय का जो दसरी पर्याय में नहीं पाया जाना है वही अन्योन्याभाव हैं । इसका दूसरा नाम इतरेतराभाव भी है। जैसे-घट पटरूप नहीं है। घट की स्वतन्त्रता अलग है, और पट की स्वतन्त्रता अलग है। घ पटरूप नहीं हो पाता है, और पट घटरूप नहीं हो पाता है । सब पर्याय अपनी साता में विराजमान रहता हुआ एक-दूसरे से जुदा रहता है । यही अन्योन्याभाव है । यद्यपि घट और पट दोनों पर्याय सद्भाव रूप हैं। किन्तु घट पट नहीं है, और पट घट नहीं है। इस प्रकार से दोनों में जो परस्पर का अभाव है यही अभाव अन्योन्याभाव है। इसी प्रकार से एक घट की दूसरे घट से जो भिन्नता है वह भी अन्योन्याभाव है । यह अन्योन्याभाव पर्यायों के आश्रित रहता है-द्रव्यों के आश्रित नहीं। द्रव्यों के आश्रित तो अत्यन्ताभाव रहता है । जैसे जीव द्रव्य न कभी पुद्गल द्रव्य रूप होता है और न पुद्गल द्रव्य कभी जीव द्रव्य रूप होता है । त्रिकाल में भी ये द्रव्य एक दूसरे द्रव्य रूप में नहीं परिणमते हैं। इस तरह द्रव्यों में जो परस्पर में एक दूसरे रूप नहीं होना है, वह अत्यन्ताभाव है 1 तात्पर्य कहने का यही है कि एक द्रव्य में अनन्त पर्याय हैं। इन अनन्त पर्यायों में आपस में जो एक-दूसरे का नहीं रहना रूप अभाब है, वही अन्योन्याभाव है । ऐसी ही इसकी व्युत्पत्ति है। यह अन्योन्याभाव सादि और सान्त है ।। ७२ ।।
सूत्र--द्रव्याद्मध्यान्तरव्यावृत्तिरस्यन्तामावोनादिरनम्तश्च ।। ७३॥
संस्कृत टीका-एकस्माद् द्रव्यात् अन्यद्रव्यस्य या व्यावृत्तिर कालिकी कालत्रयापेक्षिणीतादात्म्य परिणाम निवृत्तिः सैवात्यन्ताभाव इति कथ्यते । यथा-चैतन्यमात्मतत्त्वं न पुद्गलाद्यात्मकतामगमद्गमिष्यति गच्छति बा चेतनत्वविरोधात्, नाप्यचेतनं पुद्गलादि तत्त्वं । चेतन जीव स्वरूपता मयासीत्यास्यति वाति वा अचेतनत्व विरोधात् । तदित्थं चेतना चेतनयोः कालत्रयापेक्षिण्याः द्रव्याद्व्यान्तर