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म्यामरत्न : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ७३ विनिवृत्तेः सम्भवात् सिद्ध यत्यत्यन्ताभावः । नन्वन्योन्याभावात्यन्ताभावयोरेवं को नु विशेपो घटपटयोरपि तादात्म्य परिणाम निवृत्त : सद्भावात्, न खुल घटः पटात्मकतां पटोवा घटात्मकता कदाचिदपि प्राप्नोति स्वस्वरूप विरोधात्, इति न बक्तव्यम कदाचित् । घटस्यापि पटत्व परिणाम सम्भवात्, कदाचित् पटस्यापि घटत्व परिणाम सम्भवात् पुद्गलपरिणामानियमदर्शनात्, न चैव चेतनमचेतन तयाऽचेतनं चेतनतया वा परिणममानं कदाचिदपि दृष्टम् तत्त्वविरोधात् ।
समा- एक नाग कन सें भी दूसरे द्रव्यरूप नहीं होना यही अत्यन्ताभाव है। यह अत्यन्ताभाव अनादि और अनन्त है। त्रिकाल में भी एक द्रव्य का परिणमन दूसरे द्रव्य रूप में नहीं होता है। जीव द्रव्य न अजीव द्रव्यरूप परिणमता है, और न अजीव द्रव्य जीव द्रव्य रुप परिणमता है। इस तरह एक द्रव्य का जो दूसरे द्रव्यरूप नहीं होना है वहीं अत्यन्ताभाव है।
प्रश्न-यह अत्यन्ताभाव का लक्षण अतिव्याप्ति दोष वाला है। क्योंकि अन्योन्याभाव के लक्षण निर्देश में भी यही बात आती है-वहाँ पर भी एक पर्याय दूसरे पर्याय रूप में नहीं परिणत होता प्रकट किया गया है।
उत्तर--यद्यपि अन्योन्याभाव के लक्षण निर्देश में भी यही बात कही गई है। पर यहां जो कहा गया है वह उससे सर्वथा भिन्न ही कहा गया है। वहाँ एक द्रव्य के अनन्त पर्याय त्रिकाल में भी एक पर्याय दूसरे पर्याय रूप में नहीं परिणमते हैं, ऐसी बात तो नहीं कही गई है। अतः किसी निमित्त को लेकर आपस में अन्योन्याभाव वाला पर्याय भी एक दूसरे पर्याय रूप में परिणमन कर मकता है, और परिणमन कर भी जाता है। पर यहाँ अत्यन्ताभाव वाले द्रव्यों में से कोई भी द्रव्य त्रिकाल में भी दूसरे द्रव्यरूप में नहीं परिणमता है। इस प्रकार अन्योन्याभाव में कालिक तादात्म्य परिणाम की निवृत्ति नहीं कही गई है, यह कालिक तादात्म्य परिणाम की निवृत्ति तो इसी अत्यन्ताभाव में प्रकट की गयी है।
प्रश्न--सूत्र में तो ऐसा कुछ नहीं कहा गया है फिर आपने यह बात कैसे कही है ?
उसर--सूत्र में यह बात नहीं कही गई है, ऐसा आरोप लगाना व्यर्थ है। क्योंकि "द्रव्याद्द्रव्यान्तर व्यावृत्तिः" यह जो पद दिया गया है, उससे ही इस कथन की पुष्टि हो जाती है। क्योंकि जितने भी द्रव्य हैं, वे सब अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता को लिये हुए हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप में त्रिकाल में भी नहीं बदलता है; नहीं तो द्रव्य व्यवस्था ही विघटित हो जावेगी।
प्रश्न- तो फिर पर्याय कैसे एक पर्याय से दूसरे पर्याय रूप में बदल जाता है ?
उत्सर-एक पर्याय दुसरे पर्याय रूप में कालक्रमादिनिमित्त को लेकर बदल जाता है क्योंकि नहीं बदलने का नियम पर्यायों में नहीं है। यह नियम तो द्रव्य में ही है। मनुष्य पर्याय और नारकादि पर्यायों में यद्यपि अन्योन्याभाव वर्तमानादि काल की अपेक्षा से है, पर कालादि निमित्त को लेकर मनुष्य पर्याय नारकपर्याय रूप में और मारक पर्याय मनुष्य पर्याय रूप में बदल जाता है ।। ७० ॥
॥ तृतीय अध्याय समाप्तः ।।
न्या० टी० ११