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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ७०-७१ अन्योन्याभाव है । तथा त्रिकालवर्ती जो एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ रूप नहीं होना है, वह अत्यन्ताभाव है ।। ६६ ।।
सूत्र-विवक्षित पर्यायाविर्भावरिक्तोऽनादिसान्तस्तस्योत्पत: प्रागुपादानपरिणामः प्रागभाव: ।। ७०॥
संस्कृत टीका-प्रागभावादि भेदेनाभावस्य चतुर्विधत्वमुक्त्वा क्रमशस्तभेदस्वरूपं प्रतिपादयितुं विवक्षित पर्यायाविर्भावरिक्तोऽनादिसान्त इत्यादिना प्रागभावस्य स्वरूप लक्ष्यते-तथा च विवक्षित पर्यायः घटाटिपर्यायस्तस्याविर्भाव उत्पतिस्तेन रिक्तो मृदादिद्रव्य पिण्डरूपोपादान परिणाम एव विवक्षित घटादि पर्यायस्य समुत्पत्तेः प्राग् तस्य प्रायभावः, अयं चानादिः सान्तो भवति । यथा यदा मृत्पिण्डात् घटोत्पत्तिभवति तदामत्पिण्डस्य विनाशो भवति । अयं च मृत्पिण्डः घटोत्पत्तेः प्राक घटपर्यायोत्पत्तिरिक्तोऽघटपर्यायावस्थायां बर्तते यदा च तस्योत्पत्तिर्जायते तदा मत्पिण्डस्यनाशो भवति । अयंच प्रागभावोजनादिः सान्तुश्च घटोत्पत्त्या तद्विनष्टत्वात, अतएव नायं प्रागभावः सर्वथा तुच्छाभावरूपः पदार्थान्तर रूपत्वात् ।
सूत्रार्थ-विवक्षित पर्याय की उत्पत्ति से रहित जो उपादान परिणाम है, वही पहले उसका प्रागभाव है।
हिन्दी सरजमी-अभावामान मानि के भेद से हार प्रकार का कहा गया है सो उसमें जो प्रागभाव है उसका यहाँ पर लक्षण निर्देश किया गया है। विवक्षित पर्याय की उत्पत्ति से रहित जब तक उपादान परिणाम रहता है तब तक वह उस पर्याय की उत्पत्ति के पहले उस पर्याय का प्रागभाव कहा गया है। जैसे-जब तक मृत् पिण्ड से घट की उत्पत्ति नहीं हुई है-मृत्पिण्ड अभी तक अघटपर्याय से युक्त पड़ा हुआ है फिर जब निमित्तादि के मिल जाने पर उस घटपर्याय की उत्पत्ति होने वाली है तब वह मृत्पिण्ड उस घटपर्याय का प्रागभावरूप कहा गया है। इस तरह यह प्रागभाव घटपर्याय का अनादि होता हुआ भी उसकी उत्पत्ति हो जाने पर विनष्ट हो जाता है-मृत्पिण्ड ही घटरूप में बदल जाता है। अतः घट पर्याय का प्रागभाव मृत्पिण्डरूप जो उपादान परिणाम है वह रूप ही पड़ता है सर्वथा तुच्छाभावरूप नहीं; जैसा कि अन्य सिद्धान्तकारों ने माना है। इसी बात को लेकर जन दार्शनिकों ने इसे भावान्तररूप कहा है ।। ७० ।।
सूत्र-भूत्वाऽमवनं साधनन्तः प्रध्यसाभावः ।। ७१ ।।
संस्कृत टीका-प्रध्वंसाभावस्य लक्षण निर्देशं चिकीर्षुः सूत्रकारो भूत्वाऽभवनमित्यादि सूत्रमाहतथा च यदा मृत्पिण्डतो निमित्तादि बलतो निष्पन्नो घटादि पर्यायो विनष्टो भवति–कपालमालारूपेण परिणतो जायते तदा घटो विनष्ट इत्येवं रूपो व्यवहारो दृश्यते कपालमाला काले घटस्य दर्शनं नवोपलभ्यते अतोभूत्वाऽपि मुद्गरादि प्रहारादिना यद्घटस्य ध्वंसः स एव तस्य प्रध्वंसाभावः, अयंच घटस्य प्रध्वंसाभावः सादिः बलवद्विनाशकारणादि जन्यत्वात्. निष्पन्नस्यव कार्यस्य ध्वंसो जायते नानिष्पन्नस्यातो कालत्रयेऽपि तद्घटस्यपुनत्पत्त्यभावात् प्रध्वंसरूपोऽभावोऽनन्त इति कथितम् ।।
सूत्रार्थ-होकर के फिर उसका उस रूप में वर्तमान नहीं रहना-जैसे निष्पन्न हुए घट का कपाल माला के आकार में बदल जाना---यही घट का प्रध्वंसाभाब है।
हिन्वी व्याख्या-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने प्रध्वंसाभाव का लक्षण प्रकट किया है तथाचजब मृत्पिण्ड से घद निष्पन्न हो जाता है और कालान्तर में सुद्गरादि के प्रहार रूप बलिष्ठविनाश