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न्याय रण : न्यायरत्नापली टीका: तृतीय अध्याय, सूत्र ३३-३४-३५
और साधनाभाव व्यापक होता है क्योंकि साध्य के अभाव में और उसके साध्य के सद्भाव में भी धूमाभाव रहता है। इस कारण धूमाभाव व्यापक और तन्ह्यभावरूप साध्याभाव व्याप्य माना गया है ॥ ३१-३२ ।।
सूत्र--साध्याधार पुनहेतु सद्भावख्यापनमुपनयः ।। ३३ ।।
संस्कृत टीका-साध्यस्य-बन्यादेराधारः-पर्वतादि रूपपक्षस्तस्मिन् तथाः-चायम्" इत्यादि रूपेण हेतोः-साधनस्य धूमादेः पुनः सद्भावख्यापनमुल्लेखकरणम् उपनय उच्यते । उपनीयते साध्याविनाभावित्वेन विशिष्टो हेतुः साध्यमिण्युपदर्श्यते येन स उपनय इति व्युत्पत्तः।
सूत्रार्थ -- साध्य के आधारभूत पक्ष में हेतु का दुहराना-पुनः हेतु के सद्भाव का कथन करना इम का नाम उपनय है।
__हिन्दी व्याख्या-जब प्रतिपाद्य को ऐसा समझाया जाता है कि जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँवहाँ अग्नि अवश्य होती है जैसे महानस, उसी प्रकार से यहाँ पर भी-पर्वतादि प्रदेश में भी धूम है
त: यहाँ पर भी अग्नि है । सो इस प्रकार रो एक बार तो धमरूप साधन का प्रयोग "पर्वतोऽयं वह्निमान धूमात्" इस प्रकार की प्रतिज्ञा को बोलते समय किया गया और फिर अन्वय दृष्टान्त को दिखाते हुए पुनः ऐसा कहा गया कि "धूमश्चात्र" यहाँ पर भी धूम है । अर्थात् "तथा त्रायम" जैसा महानस धूमवाला है ऐसा ही यह भी धूमवाला है । "धूमश्चात्र" और "तथा चायम्' इन दोनों पदों का एक ही अर्थ है। इस तरह से हेतु का पक्ष में जो दुहराना है वही उपनय है ।। ३३ ॥
सूत्र-प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम् ।। ३४ ॥
संस्कृत टीका-"पर्वतोऽयं वह्निमान्" इत्येवं रूपा या प्रतिज्ञा–धर्मर्मिसमुदायस्पा पूर्व कथिता तस्याः पुनर्वचनं-कथनं यथा “तस्मादग्निरत्र'' इदमेव निगमनस्य लक्षणम् ।
सूत्रार्थ-प्रतिज्ञा का दुहराना, इसका नाम निगमन है।
हिन्दी व्याख्या-“यह पर्वत अग्निवाला है" इस प्रकार की धर्म एवं धर्मों के समुदाय कथन रूप प्रतिज्ञा होती है, यह पहले प्रकट किया जा चुका है। सो इसी प्रतिज्ञा का पुनः उपनय के बाद इस प्रकार से दुहाना कि जब यहाँ धूम है (उपनय वाक्य) तो यहाँ अग्नि है बस इसी का नाम निगमन है ॥ ३४ ।। सम्प्रति दृष्टान्तादि वचनं वाद काले न परप्रतिपत्तरङ्गमिति यदुक्त तदेव विस्पष्टीकर्तुमाह--
सूत्र-दृष्टान्त वचनं न साध्य प्रतिपत्त्यर्थं प्रभवति तत्र हेतोरेव व्यापारात् ।। ३५ ।।
संस्कृत टीका- दृष्टान्तवचनं पर बदनुमानांगरूपतया स्वीकृतं तत् कि तस्तत्साध्य प्रतिपत्तेरङ्गमितिकृत्वा, यद्वाऽविनाभावस्मृतेरङ्गमिति कृत्वा, आहोस्विदन्यथानुपपत्ति निर्णतिरगामिति कृत्वा । एतेषु विकल्पेषु तावत्प्रथमां विकल्पो न समीचीनः साध्यप्रतिपत्तेर्यथोक्तहेतोरेव जायमानत्वात् अतः साध्यसाधनयोरविस्मृताविनाभाव सम्बन्धस्य प्रमातुः साध्याविनाभाव्येकलक्षण हेतोः प्रयोगादेव साध्यप्रतिपत्तेर्जायमानत्वात् तत् साध्यप्रतिपत्तेरङ्ग न भवतीति ज्ञातव्यम् ।
१. साध्यं व्यापकमित्याहः साधनं व्याप्यमुच्यते । प्रयोगेन्नयनयेत्य व्यतिरेके विपर्ययः ।।