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न्याय रत्न : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र ३१-३२ सिद्ध की जा रही है वह एक ही पद्धति से साधन के द्वारा साध्य के सिद्ध किये जाने के समान स्थल हैं। यही इनकी सधर्मता या साधर्म्य है कि इनमें धूम के सद्भाव से अग्नि का अवश्य सद्भाव पाया जाता है। इस साधर्म्य दृष्टान्त का दूसरा नाम अवय दृष्टान्त भी है । जहाँ साध्य के अभाव में साधन का अभाव निश्चित किया जाता है वह वैधयं दृष्टान्त है। इसका भी दूसरा नाम व्यतिरेक दृष्टान्त है । साध्य के अभाव में साधन का अभाव जलहद आदि में पाया जाता है । अतः वह वधर्म्य दृष्टान्त है ।। ३०।।
सूत्र-अन्वय व्याप्ति प्रदर्शनस्थलं साधय दृष्टान्तः ।। ३१॥ ___व्यतिरेक व्याप्ति प्रदर्शनस्थल व्यतिरेक दृष्टान्तः ॥ ३२॥
संस्कृत टीका-यत्र यत्र धूमस्तत्र-स्तत्र अग्निरेषाऽन्वय व्याप्तिः, अस्याः प्रदर्शन स्थल महानसादिकम् तदेव साधर्म्य दृष्टान्तः साध्याभावे साधनाभावो व्यतिरेक-एवं च यत्र-यत्र वन्यभाबस्तत्रतत्र धूमाभावः एषा व्यतिरेक व्याप्तिः अस्याः प्रदर्शनस्थल-प्रतीतिस्थान-जल ह्रदादिकम् तदेव वैधयं दृष्टान्तः।
हिन्दी व्याख्या -जहाँ पर साध्य और साधन की अन्वयरूप व्याप्ति दिखाई जाती है अर्थात्जहां-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है-ऐसा धूम और अग्नि का साहचर्य सम्बन्ध प्रतिपाद्य को दिखाया जाता है कि जिससे वह यह जानकर दृढ़ धारणा वाला बन जाता है कि "जहाँ पर धूम होता है वहाँ नियमतः अग्नि होती है" ऐसी ही इन दोनों में व्याप्ति बन सकती है-ऐसी व्याप्ति नहीं बन सकती है कि "जहाँ-जहाँ अग्नि होती है वहाँ-वहीं नियमतः धूम होता है" क्योंकि ऐसा नियम है कि व्याप्य के सदभाव में तो नियम से व्यापक का सद्भाव रहेगा ही, पर ऐसा यह नियम नहीं है कि व्यापक के सदभाव में नियमतः व्याप्य रहे ही । व्याप्य व्यापक के विचार में जैन दार्शनिकों ने "व्यापकं तदतनिष्ठ व्याप्यं तन्निष्टमेव च" ऐसा कथन किया है। इसका रहत्य ऐसा है कि व्याप्य के सदभाव में भी और व्याप्य के असद्भाव में भी जिसका सद्भाव पाया जाता है वह उसका व्यापक होता है तथा व्यापक के सदभाव में ही जिसका सद्भाव पाया जाता है वह उसका व्याप्य होता है । अतः ऐसी ही व्याप्ति बन सकती है कि "यत्र-यत्र धमस्तत्र-स्तत्र अग्निः यथा महानसम्" यहाँ "महानसम्" यह अन्वय व्याप्ति को दिखाने का स्थान है । प्रतिपाद्य इस स्थान में धूम और अग्नि की व्याप्ति को देखकर दृढ़ धारणा से उसे चित्त में शापित कर लेता है और जब कहीं पर जाते समय पर्वतादि स्थान में उड़ते हए धम को देखता है तो बद्र उस स्थान पर-महानसरूप साधर्म्य स्थान पर-गृहीत की गई इन दोनों की व्याप्ति का स्मरण कर लेता है और फिर अग्नि की अनुमिति उस पर्वत पर करता है । इस तरह से यह साधम्य दृष्टान्त अन्वय व्याप्ति का प्रदर्शन स्थान कहा गया है । जहाँ अग्नि नहीं होती है--साध्य नहीं होता है- वहाँ साधन भी _म भी नहीं होता है, यही व्यतिरेक व्याप्ति है। और इस व्याप्ति को उसने जलदादि प्रदेश में गृहीत किया है, अतः वह व्यतिरेक दृष्टान्त कहा गया है । जिस तरह अन्वय व्याप्ति प्रदर्शन करते समय साध्य व्यापक होता है और साधन व्याप्य होता है उसी प्रकार व्यतिरेक व्याप्ति में साध्याभाव व्याप्य
१. साध्य साधनयो ऑप्तिर्यव निश्चीयतेतराम।
साधम्र्येण स दृष्टान्तः सम्बन्ध स्मरणान्मतः ॥ १५॥-न्यायावतार: साध्ये निवर्तमाने तु साधनस्याप्यसंभवः । स्याप्यते यत्र दष्टान्ते वधम्यणति स स्मृतः ।।११॥-न्यायावतार: