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न्यायरल : न्याय रत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र २८-२९-३० । ६१ जैस-यह पर्वत अग्निवाला है। यहाँ धर्म-आँगन और धर्मी-पर्वत है। इन दोनों का एक साथ कहना कि-"यह पर्वत अग्निवाला है" इस प्रकार के वचनोच्चारण को प्रतिज्ञा कहते हैं।
सूत्र-साध्याविनाभावी हेतुः ।। २८॥ संस्कृत टीका--साध्येन विना यो न भवति स हेतुः । सूत्रार्थ-साध्य के बिना जो नहीं होता है वही हेतु है ॥२८|| सुत्र-अविनाभाव प्रतिपत्त रास्पदं दृष्टान्तः ॥ २६ ॥
संस्कृत टीका-साध्यसाधनयोर्गम्यगमकभावापन्नयो योऽविनाभावसम्बन्धस्तस्य प्रतिपत्त: स्मतिरूपायाः आस्पद-स्थानम् दृष्टान्तो भवति ।
व्याख्या-साध्य और साधन आपस में गम्य गमक होते हैं। साध्य गम्य होता है और साधन गमक होता है। इन दोनों का जो अविनाभाव सम्बन्ध है-अग्नि के बिना धूम नहीं हो सकता है ऐसा जो साध्य के विना साधन का नहीं होना है। इस सम्बन्ध को समझने का जानने का जो स्थान है उसका नाम दृष्टान्त है । साधन द्वारा साध्य की सिद्धि करने में दिया गया दृष्टान्न उन दोनों की व्याप्ति का स्मरण कराने से वादी प्रतिवादी दोनों को मान्य होता है ।। २६ ।।
सूत्र-साधर्म्य वैधाभ्यां स द्विविधः ॥ ३० ॥
संस्कृत टीका-दृष्टयोरवलोकितयोः साध्य साधनयोः अन्तः अन्वयाद् व्यतिरेकाद्वा साध्य साधनभाव व्यवस्थिति निबन्धनो ब्याप्तिनिर्णयो यस्मिन्निति स दृष्टान्तः । साधर्येण वैधम्र्येण च स द्विविधो भवति । तत्र समानो धर्मोऽस्येति सधर्मा तस्य भावः साधर्म्यम् । विसदृशो धर्मोऽस्येति विधर्मा, विधर्मणो भावो धर्यम् । यत्र जिज्ञासितात्मिकस्य साध्यस्य तद्गमकस्य च साधनस्यच व्याप्ति रविनाभाव सम्बन्ध रूपा "यथाऽस्मिन् सत्येवेदं भवति" निश्चीयते स साधयं दृष्टान्तः यथा महानसम्, अस्यापर नामान्वय दृष्टान्तोऽप्यस्ति । यत्र च साध्याभावे साधनस्याभावो निश्चीयते स वैधर्म्य दृष्टान्तः । अस्याप्यपर नाम व्यतिरेक दृष्टान्तः, यथा वह्नरभावे धूमाभायो भवति जलहदादो।।
सूत्रार्थ- साधयं दृष्टान्त और वैधर्म्य दृष्टान्त के भेद से दृष्टान्त दो प्रकार का कहा
गया है।
हिन्दी व्याख्या दृष्ट प्रत्यक्ष से अवलोकित साध्य और साधन की अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा जिसमें साध्य साधन भाव की व्यवस्थिति निमित्तक व्याप्ति का निर्णय अन्त ज्ञात हो गया होता है वह दृष्टान्त है । साधर्म्य दृष्टान्त जब पर्वतादि प्रदेश में धूमरूप साधन द्वारा अग्निरूप साध्य सिद्ध किया जाता है तब महानसादिरूप होता है । क्योंकि साध्य साधन का दृष्टान्त में रहना या तो अन्वय के द्वारा जाना जा सकता है या व्यतिरेक के द्वारा । कारण इसका यही है कि किसी में साध्य साधन भाव अन्वय व्यतिरेक के द्वारा ही पहचाना जा सकता है । जिसका समान धर्म होता है वह सधर्मा कहा जाता है । सधर्मा के भाव को साधर्म्य कहते हैं। विसदृश धर्म जिसका होता है वह विधर्मा कहा जाता है। विधर्मा का जो भाव है वह वैधयं है। जहाँ पर जिज्ञासित अर्थरूप साध्य-अग्नि आदि की और उसके गमक साधन-धूमादि की अविनाभाव सम्बन्धरूप व्याप्ति निश्चित हो जाती है जैसे धूम के होने पर अवश्य ही अग्नि होती है यथा-महानस आदि प्रदेश में, वह साधर्म्य दृष्टान्त है । महानसादि प्रदेशों को साधर्म्य दृष्टान्त की कोटि में आने का कारण यही है कि महानस आदि प्रदेश और जहाँ पर अभी अग्नि