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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र १६ कल्पनात्मक प्रतीतिसिद्ध-धर्मी हैं प्रमाणप्रसिद्ध धर्मी नहीं हैं । हाँ, इतना अवश्य है कि इनमें सत्त्व साध्य की तथा असत्त्व साध्य की सिद्धि तो प्रमाण के बल से ही होती है पर इसके पहले ये दोनों विकल्प सिद्ध धर्मी हैं।
प्रश्न-जब इन धर्मियों की सिद्धि विकल्परूप मानस प्रत्यक्ष से है तो फिर इनमें सत्त्व के साधने वाले अनुमान की और असत्त्व के साधने वाले अनुमान की आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिये क्योंकि विकल्परूप मानस प्रत्यक्ष से ही इनके सत्त्व और असत्त्व की सिद्धि कर दी गई हो जाती है।
उत्तर-शङ्का तो ठीक है । पर इस पर थोड़ी विचार-बुद्धि से विचार किया जावे तो उनर भी प्राप्त हो सकता है। यह ठीक है कि मानसप्रत्यक्षरूप विकल्प से इनमें अस्तित्व और नास्तित्व का ख्यापन कर दिया जाता है अतः उसके लिये, सत्त्व और असत्व सिद्ध करने के लिये अनुमान की आबश्यकता नहीं होनी चाहिये, परन्तु फिर भी जो अनुमान द्वारा उनके सत्त्व और असत्व की सिद्धि की जाती है उसका कारण सिर्फ यही है जो प्रतिबादी अपनी हठधर्मिता से उनके सत्व और असत्त्व को नहीं मानता है उसे इनके सत्व और असत्व को प्रमाण से अनुमान प्रमाण से साधित कर समझाया जाता है। अतः इस स्थिति मं अनुमान की आवश्यकता होती है।
प्रश्न-यदि मानसप्रत्यक्षरूप विकल्प से धर्मी की सिद्धि मानी जावे तो फिर आपने जो ऐमा कहा है कि विकल्पसिद्ध धर्मी में सत्ता या असत्ता ये दोही साध्यकोटि में रहते हैं। सो ऐसा कहना अब नहीं बन सकता है। क्योंकि मानसप्रत्यक्षरूप विकल्प में खर विषाण का भी अस्तित्व रूप से भान होता है। यदि अस्तित्व रूप से उसका भान न हो तो वह विकल्प सिद्ध ही नहीं कहला सकता है।
उसर-ठीक है । परन्तु जो मानस प्रत्यक्ष बाधक रूप प्रमाण से जिसकी सत्ता निराकृत की जाती है-ऐसे पदार्थ को अस्तित्वरूप से अपने में ग्रहण करने वाला होता है तो वह मानसप्रत्यक्षाभास कहा जायेगा, मानसप्रत्यक्ष नहीं ।
प्रश्न-यदि इस तरह से बाधक प्रत्यय द्वारा निराकृत सत्ता वाले खर विषाणादि रूप पदार्थ को विषय करने वाला मानसप्रत्यक्ष मानस प्रत्यक्षाभास कहा जाता है तो फिर सर्वज्ञ रूप धर्मी की सिद्धि करने वाला मानसप्रत्यक्षरूप विकल्प मानसप्रत्यक्षाभास रूप क्यों नहीं माना जावेगा- क्योंकि सर्वज्ञ रूप धर्मी के सद्भाव का प्रख्यापक भी कोई प्रमाण नहीं है।
उत्तर-ऐसा नहीं कहना चाहिए । क्योंकि सर्वज्ञ के अस्तित्व का ख्यापन करने वाला प्रमाण मौजूद हैं। इस तरह विकल्प से धर्मी की प्रसिद्धि होती कही गई है। "पर्वतोऽयमग्निमान्" यहाँ पर पर्वत रूप धर्मी की प्रसिद्धि प्रत्यक्ष प्रमाण से हो रही है । प्रमाण और विकल्प से "शब्दोनित्यः" यहाँ पर हई धर्मी की प्रसिद्धि कही गई है क्योंकि वर्तमानकालिक शब्द की सिद्धि तो श्रावणप्रत्यक्ष से हो रही है
और भूतकालीन और भविष्यत्कालीन शब्दों की सिद्धि विकल्प से हुई है। प्रमाण प्रसिद्ध धर्मी में और प्रमाण विकल्प सिद्ध धर्मी में साध्य इच्छानुसार होता है। विकल्पसिद्ध धर्मी की तरह वह प्रतिनियन नहीं होता है।
-प्रमाणमीमांसा पु०४७।
१. तबुद्धिसिद्ध धर्मिणि सत्वमसत्त्वं च साध्य धर्मः प्रमाणबलंन साध्यते । २. अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासम्भवबाधक प्रमाणात्वात् ।