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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र १७-१८ इस समस्त कथन का भावार्थ ऐमा है कि प्रमाण से जिस पक्ष फान नास्तित्व सिद्ध हो और न अस्तित्व सिद्ध हो किन्तु उसका अस्तित्व या नास्तित्व सिद्ध करने के लिए जो केवल शाब्दिक रूप मेंप्रतीति के रूप में मान लिया गया हो वह विकल्पसिद्ध धर्मी कहा गया है । यही बात "अनिश्चित प्रामाण्याप्रामाण्य प्रत्ययतः" इस पद से समझाई गई है । जैसे—''सर्वज्ञः अस्ति "स्वर विषाणं नास्ति' यहाँ पर सर्वज्ञ और बर विषाण ये दोनों धर्मी हैं। धर्मी-पक्ष-जो होता है वह प्रसिद्ध होता है । साध्य की तरह बह अप्रसिद्ध नहीं होता है । "पर्वतोऽयमग्निमान्" में पर्वतरूप पक्ष-धर्मी प्रत्यक्ष प्रमाण से जानने में आ रहा है अतः वह प्रमाण प्रसिद्ध धर्मी है । ऐसा धर्मी यहाँ यह सर्वज्ञ या खर विषाण नहीं है अतः जब तक अनुमान प्रमाण द्वारा इसका अस्तित्व या नास्तित्व सिद्ध नहीं हो लेता है तब तक इसके पहले ये दोनों केबल प्रतीतिमात्र से ही गम्य है, प्रमाण से गम्य-सिद्ध नहीं हैं। प्रमाण प्रसिद्धधर्मी प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रसिद्ध होता है जैसे अग्नि साध्य करते समय पर्वतरूप धर्मी प्रत्यक्ष से प्रतीति में आता है । उभयसिद्ध धर्मी में दृष्टान्त "शब्दोऽनित्यः' है । वर्तमानकालीन शब्द श्रावणप्रत्यक्षगम्य है और भूतकालिक एवं भविष्यकालिक शब्द विकला से गम्य होते हैं । इस तरह धर्मी की सिद्धि विकल्प से, प्रमाण से और उभय से होती हुई कही गई है ।। १६ ॥
सूत्र--स्वार्थानुमान प्रतिबोधक पक्ष हेतु वचनात्मकं वाक्यं परार्थानुमानमुपचारात् ॥१७॥ .
उत्तानार्थमवः- अस्य सूत्रस्याशयो भावार्थश्च स्वार्थानुमान-परार्थानुमान-भेद-प्रतिपादके १२ सूत्रे ॥ संस्कृते हिन्दी टीकायाञ्च स्पष्टीकृतः ।
सूत्र--साध्या विनाभावो व्याप्तिः ।। १८ ।।
संस्कृत टीका–साध्यस्य वन्ह्यादेः अविनाभावः-न विना भावः अविनाभावः साध्य-वह्नि विना हेतोर्न भावः अस्तित्वं वृत्तित्वं संभवतीति । धुमस्य वहि विना न भाव एवं व्याप्तिरिति भावः एवं च वन्यभावप्रति जलहदादी धूमस्य अवृत्तित्वमेव व्याप्तिरिति भावः । यथा "पर्वोऽयं धमयान" इत्यत्र पर्वतः पक्षः, वह्निः साध्यः, धूमोहेतुः तत्र साध्यस्य वझेरभावः साध्याभावः- बन्ह्यभावः सोऽस्ति यस्मिन् इति वन्यभावरूप साध्याभाववान् जलहदादिस्तस्मिन् मीन शबालादिर्वर्तते धूमस्तु न वर्तते अतएव वन्यभावाधिकरण जल हदनिरूपित वृत्तित्वं मीनशेबालादो तादृश वृत्तित्वाभावरूपा व्याप्तिधूमे सङ्गता । सेव च व्याप्तिः साध्याविनाभावरूपाऽवगन्तव्या । तत्र धूमो व्याप्यः वह्निस्तु व्यापको भवति । न्यूनदेश वृत्तित्वं व्याप्यत्वम् अधिक देश वृत्तित्वं व्यापकत्वम् इति व्याय-व्यापकयोः सामान्य लक्षणम्, धूमो वन्यपेक्षया न्यून देश वृत्ति तया व्याप्यो भवति अयोगोलकादौ वह्नः सत्वेऽपि धूमस्यासत्वात् । वह्निस्तु धूमस्य व्यापको वर्तते अयोगोलकादावेत्र धूमस्यासत्त्वेऽपि वह कृतित्वादित्यवधेयम् ।
सूत्रार्थ–साध्य के साथ साधन का जो अविनाभाव है उसी का नाम व्याप्ति है। हिन्दी व्याख्या-साध्य-वह्नि-आदि के बिना धूम का नहीं होना इसी का नाम साध्याविना
१. न खलु हेतुप्रयोगात्सू सर्वज्ञम्य विकल्प विहायान्यन: कुतधिचत् सिद्धिरस्ति । - स्याद्वादरत्ना कार पु. ५४१।
सर्वज्ञोहि अस्तित्वसिद्धः प्राग न प्रत्यक्षादि प्रमाणसिद्धः अपि तु प्रतीतिमावसिद्ध इति विकल्प सिद्धोऽयं धर्मी तथा खरविषाणमपि नास्तित्व सिद्धः प्राग विकल्प सिद्धम उभयसिद्धो धर्मी यथा शब्दः परिणामी कृतवत्यादित्यत्र शब्दः, सहिवर्तमान प्रत्यक्षप्रमाणगम्यः भूतो भतिष्यश्च विकल्पगम्मः। -- न्यायदी० पु. २१ ।