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न्यायरत्न : म्यायरत्नावली टीका : तुतीय अध्याय, सूत्र १६ व्याप्ति ग्रहण करने का समय होता है--साध्य साधन का अविनाभाव सम्बन्ध ज्ञान करना होता है, और इसका दूसरों के प्रति प्रतिपादन करना होता है-उस समय यह नियम है, कि धर्म ही साध्य होता है। जिसके आधार से साध्य रहता है वह धर्मी कहलाता है। इस धर्मी की अपेक्षा से ही साध्य को धर्म कह दिया गया है । “यत्र-यत्र धूमस्तत्र-तत्र वह्निः" इस व्याप्ति में हम देखते हैं, कि केवल साध्यरूप अग्नि का ही प्रयोग हुआ मिलता है । उसके साथ उसके आधारभूत पर्वतादि का नहीं । यदि ऐसी व्याप्ति मानी जावे कि जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ पर्वत अग्निवाला होता है तो व्याप्ति बन ही नहीं सकती है। इसका कारण यही है कि धूम का साहचर्य सम्बन्ध तो अग्नि के साथ है, पर्वत के साथ नहीं। इसलिये जैसा साहचर्य सम्बन्ध अग्नि और धूम का है वैसा पर्वत का नहीं है। इसलिए व्याप्ति काल में धर्मविशिष्ट धर्मी के साध्य होने का नियम नहीं कहा गया है। केवल साध्यरूप धर्म के ही साध्य होने का नियम कहा गया है। साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी तो साध्य तभी होता है कि जब अनुमान के प्रयोग करने की आवश्यकता होती है। क्योंकि पर्वतादि रूप धर्मी में ही उस समय अग्नि के होने का ख्यापन किया जाता है। अतः अग्निविशिष्ट पर्वत साध्य कोटि में आ जाता है। यद्यपि पर्वत की सिद्धि तो प्रत्यक्ष से ही हो रही है । परन्तु अग्निविशिष्ट पर्वत की सिद्धि प्रत्यक्ष से नहीं हो रही है। वह तो अनुमान से ही होती है । अतः विवक्षित अग्निमत्त्व रूप से आधारभूत पर्वत की सिद्धि करना यही अनुमान का प्रयोजन होता है । ऐसी अवस्था में अग्निमत्व रूप असिद्ध साध्य के आधार वाला होने के कारण "बग्निवाला पर्वत" ही साध्य कोटि में आता है। केवल बलिरूप धर्म साध्य कोटि में नहीं आता है । क्योंकि वह भी सिद्ध है और पर्वत रूप धर्मी भी सिद्ध है। इसी कारण ऐसा कहा गया है कि व्याप्ति को ग्रहण करने के समय में तो केवल धर्म ही साध्य होता है और अनुमान काल में साध्यवर्म विशिष्ट धर्मी-पक्ष-साध्य होता है। इस तरह पिता पुत्र की तरह यह साध्यत्व व्यवहार प्रतिनियत न होकर आपेक्षिक होता कहा गया है ।। १५ ।।
सूत्रक्वचिद्विकल्पात् प्रमाणात्तदुभयतश्च धमिसिद्धिः ॥ १६ ॥
संस्कृत टीका-मि इत्यपर नाम्नः पक्षस्य सिद्धि:--प्रसिद्धिः क्वचित् सर्वज्ञादौ खर विषाणादौ था विकल्पात्-विकल्प बुद्धितः अनिश्चित प्रामाण्याप्रामाण्य प्रत्ययतो भवति-जायते "यथाऽस्ति सर्वज्ञः, नास्ति खर विषाणम्" इत्यादि, कुत्रचित् प्रमाणात् धर्मिणः सिद्धिर्भवति-यथा पर्वतोऽयमग्निमानित्यादि, क्वचिदुभयतः-प्रमाणविकल्पाभ्यां धर्मिणः सिद्धिर्भवति---यथा शब्दोऽनित्यः, इत्यादि, विकल्पसिद्ध धर्मिणि सत्ताऽसत्ता च साध्या भवति, प्रमाणोभयसिद्धयोः धर्मिणोः साध्यं कामचारः ।। १६ ॥
हिन्दी व्याख्या-धर्मी प्रसिद्ध होता है ऐसा जो कहा गया है उसी की पुष्टि के निमित इस सूत्र का निर्माण हुआ है। इसके द्वारा यह समझाया गया है-धर्मी-पक्ष की सिद्धि कहीं विकल्प से होती है, कहीं प्रमाण से होती है और कहीं प्रमाण विकल्प इन दोनों से होती है। विकल्प नाम उस मानसिक विचार का है, कि जो न प्रमाणभूत होता है और न अप्रमाणभूत होता है। जब हम उस वस्तु को जो हमारे प्रत्यक्ष प्रमाण के विषयभूत न हो धर्मी बनाते हैं लो वह विकल्पसिद्ध धर्मी कहा जाता है जैसे "अस्ति सर्वज्ञः, नास्ति स्वर विषाणम" यहाँ पर सर्वज्ञ और खरविषाण ये दोनों विकल्पसिद्ध अर्थात्
१. विकल्प सिद्धे तस्मिन् सत्तसरे साध्ये ।
बुडि सि मिणि साध्यधर्मः सत्त्वमसत्त्वं च प्रमाणमलेन साध्यते ।
--परीक्षामुख ..-प्रमाणपीमांसा पृ०७