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मित्युक्तम् । एवं च संदिग्वस्य अबाधितस्या निश्चितस्यैव साध्यता संभवति न निश्चितादिकस्येति
भावः ।
न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका सुतीष अध्याम, सूत्र १५
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सुत्रार्थ जो अनिश्चित हो, दादी को स्वीकृत हो - प्रतिवादी को स्वीकृत न हो और प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से जो बाधित न हो, वही साध्य होता है ।
हिन्दी व्याख्या--जो प्रतीत होता है— जिसमें किसी भी प्रकार की शंका नहीं होती है, विपर्यय ज्ञान का जो विषयभूत नहीं होता है, अनध्यवसाय ज्ञान से जो आक्रान्त नहीं होता है, वह साध्य नहीं होता है। प्रत्युत साध्य वही होता है जो संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञान से अभिभूत होता है । इमी बात को समझाने के लिये सूत्र में अनिश्चित पद रखा गया है। पिष्ट को पीसने की तरह निश्चित को साध्य करने से कोई लाभ नहीं है । प्रतिवादी को जो स्वीकृत न हो किन्तु वादी को ही जो स्वीकृत हो क्योंकि सिद्ध करने की अभिलाषा वाला वादी ही होता है प्रतिबादी नहीं - वह तो उसे निराकरण करने की ही इच्छा वाला होता है। इसी बात को प्रकट करने के लिये सूत्र में अभिमत पद दिया है । तथा जो किसी भी प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से बाधित न हो सके, वही साध्य होता है, बाधित साध्य नहीं होता है। इस हृद्य को प्रकट करने के लिये सूत्र में अबाधित पद दिया गया है। इस तरह जो अनिश्चित, अभिमत और अबाधित होता है, वही साध्य होता है । इन अपने विशेषणों से रहित साध्य नही होता है । यही इस सूत्र को टीका का भावार्थ सहित अर्थ है || १४ |
सूत्र- व्याप्तौ धर्म एव साध्यमनुमाने तु तद्विशिष्टो धर्मी ।। १५ ।।
संस्कृत टीका - साध्यस्य स्वरूपं प्ररूप्य सम्प्रति धर्मस्य वन्ह्यादेर्धमिणश्च वह्निमपर्वतादेरापेक्षिकं साध्यत्वं प्ररूप्यते—व्याप्ती-व्याप्ति ग्रहण काले-धर्मो वह्निरूप एवं साध्यम् यथा - यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः, न तु यत्र यत्र धूमस्तत्र स्तत्र पर्वतोऽग्निमान : इति । व्याप्ति ग्रहण काले धूमेन सहधर्मिणः पर्वतस्य साहचर्यादर्शनात् । अतः तस्मिन् काले वह्निरूप धर्मस्यैव साध्यत्वं कथितं बोद्धव्यम् नतु पर्वतरूप धर्मिणः अन्यथा व्याप्तेरवदनात् । साध्य धर्म विशिष्टस्य धर्मिणस्तु अनुमान प्रयोग काले एव साध्यत्वं तत्रैवाग्निमत्तायाः साध्यत्वात् । विवक्षिता धाराश्रिताग्नि मत्त्व साधनमेव अनुमान प्रयोजनम् । अतमत्त्व धर्मविशिष्टोऽद्रि रूपो धर्मी एव साध्यो भवति न तु केवलं वह्निरूपो धर्मः । पर्वतादी बलेमिति काले व्याप्तिग्रहण कालिक धूम प्रतिनियत वह्निरूप साध्य धर्म विशेषण विशिष्टतया पर्वतात्मक धर्मिण एव साधयितुमिष्टत्वात् । तत्रैव साध्यत्व व्यपदेशो भवतीति भावः । एतेन व्यवहारकाले पर्वतो वह्निमान् इत्येवं वह्निरूप धर्म विशिष्टः पर्वतरूपो धर्मी साध्यत्वेन व्यवह्रियते । व्याप्तिग्रहण वेलायां तु केवलं वह्निरूप धर्म एव साध्यत्वेन व्यपदिश्यते इति फलितम्, अन्यथा धूमे वह्नि व्याप्ति ग्रहो न स्यात् । यत्र यत्र धूमस्तत्र-स्तत्र वह्निरित्येवं साहचर्य दर्शनेन धूमे वह्निनिरूपित व्याप्तिग्रहो भवति न तु यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र पर्वतः इत्येवं साहचर्येण व्याप्तिग्रहो भवति तस्मात् पितृ पुत्रवत् आपेक्षिक साध्यत्वस्य धर्मे धर्मिणि च सत्वे न कश्चिद् विरोधः संभवतीति ।
सूत्रार्थ - व्याप्ति में - व्याप्तिग्रहण काल में -- धर्म ही साध्य होता है । साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी साध्य नहीं होता है । साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी साध्य तो अनुमान काल में ही होता है ।
हिन्दी व्याख्या - साध्य के स्वरूप की प्ररूपणा करके अब सूत्रकार यह प्रकट कर रहे हैं कि व्याप्ति को ग्रहण करने के समय में और अनुमान प्रयोग करने के समय में साध्य कौन होता है। जब