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न्यायरत्न : न्यामरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र १३ ये वाक्य ही परार्थ हैं, क्योंकि वे दूसरों को बोध कराने के लिये कहे गये हैं। यही बात “स्वार्यानुमानाभिधानं परार्थानुमानमिति" इस पाठ द्वारा प्रकट की गई है।
प्रश्न- जैन दर्शन तो ज्ञान को ही प्रमाण मानता है। फिर यहाँ पर जड़ अचेतन रूप वचनों को जो स्वार्थानुमान के अभिधायक होते हैं कैसे परार्थानुमान रूप से स्वीकार कर रहा है ?
उत्तर-शङ्का ठीक है। पर इस तरह के कथन का विचार करने पर शङ्का निरस्त हो जाती । देखो देवदत्त के कहने से तो यज्ञदत्त को साध्य साधन का ज्ञान हुआ है। अतः देवदत्त के जो वचन हैं, वे यज्ञदत्त के शान होने में कारण हुए हैं। इसलिए यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके स्वार्थानुमान प्रतिपादक वचनों को परार्थानुमान रूप कह दिया गया है। जो जिसका रूप नहीं है, उसको उसका कारण होने से उस रूप से मान लेना इसी का नाम उपचार है। प्रतिपाद्य में जो ज्ञान भरा जा रहा है, जिसका अव्यवहित कारण वचन हैं। सो उन वचनों को ही अनुमान रूप कह दिया गया है ।
___कथा दो प्रकार की होती है- एक विजिगीषु कथा और दूसरी वीतराग कथा | इनमें वादी और प्रतिवादी का अपने-अपने पक्ष की सिद्धि के लिये जो जय-पराजय पर्यन्त निर्वाचित सभ्य सभापति समक्ष शास्त्रार्थ रूप से वाद विवाद छिड़ता है, वह विजिगीषु कथा है। जिसमें गुरु शिष्य का आपस में तत्त्व निर्णन करने के लिए विचार विनिमय होता है, उसका नाम वीतराग कथा है। पगर्थानुमान | रूप विजिगीषु कथा के प्रतिज्ञा एवं हेतु ये दो ही अंग होते हैं। तथा शिष्यादि को अनुमान का बोध कराने के लिये या तत्व निर्णय करने के लिए उनकी बुद्धि के अनुसार दो से भी अधिक अंग होते हैं। स्वार्थानुमान के प्रतिज्ञा और हेतु ये ही दो अंग होते हैं। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन ये जो अनुमान के पांच अंग बताये गये हैं, वे बाल-जीवों को अनुमान का ज्ञान कराने के लिये ही कहे गये हैं ।। १२ ।।
सूत्र-तयोपपत्त्येकलमणो हेतुः: मतु त्रिपञ्चलक्षणस्तस्य सवाभासेऽपि सत्त्वात्, अग्नि मस्वे सत्येव धूमयत्वोपपत्तिस्तथोपपत्तिः ॥१३॥
संस्कृत टीका तथोपपत्तिशब्देन साध्याविनाभावित्वमेव हेतोर्लक्षणं निगदितमवगन्तव्यम् । यथाऽन्यथानुपपत्तिशब्देन । आईतमतोक्तमिदं हेतुलक्षणमनाहत्यान्येऽन्यथापि हेतु लक्षणमाहुः, तत्र तावत्तदन्यथागताः पक्षधर्मत्व सपक्षसत्त्व विपक्षब्यावृत्तिलक्षणाल्लिगादनुमानोत्थानं वर्णयन्ति । साध्यधर्म बिशिष्टधम्यत्मिके पक्षे हेतोर्वर्तमान त्वं पक्षधर्मत्वम्, अन्वयोदाहरणे वर्तमानत्वं सपक्षसत्वं, व्यतिरेक दृष्टान्ते चावर्तमानत्वं विपक्ष व्यावृत्तत्वम् । एतानि श्रीणि यस्मिन् हेतौ वर्तमानानि भवन्तित देव सजे तुरिति ।
नैयायिकास्तु पक्षधर्मत्वादीनि इमानि त्रीणि तथाऽबाधितविषयत्वा सत्प्रतिपक्षत्वं चेति रूपद्वयं हेतोर्लक्षणं कथयन्ति । परन्तु एतत्कथनं समीचीनं नास्ति हेत्वाभासेऽपि त्रिलक्षणस्य पञ्चलक्षणस्य सद्भावात् । तथाहि--"पर्वतो धूमवान् वह्नः" इत्यादावपि धूम ट्यभिचारिणि वह्नौ पर्वतरूप पक्षवृत्तित्वस्य महानसरूप सपक्षसत्त्वस्य ह्रदरूप विपक्षाद् व्यावृत्त्वस्य सद्भावेन तस्यापि सद्धेतुत्वापत्तेः एवमपि हेतोः पञ्चलक्षणमपि नैयायिकोक्त न युक्तम्-"पर्वतो धूमवान् बह्रः" अस्मिन्नेव अनुमाने धूम व्यभिचारिणि वह्नौ पर्वतात्मक पक्षवृत्तित्वस्य, महानसादि रूप सपक्षसदस्य, जलह,दादि विपक्षावृत्तित्वस्य प्रति
१. इसके लिए न्यायदीपिका देखो।