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न्यायरत्न : न्यायरत्नावली टीका : तृतीय अध्याय, सूत्र १२ सूत्र-स्वार्थ परार्थ भेदात्तद्विविधम् ॥१२॥
संस्कृत टीका-तत्र स्वस्मै इदं स्वार्थम् । स्वयमेव निश्चितात् प्राक्तानुभूत व्याप्ति स्मरण सहकतात् साध्याविनाभाव्येक लक्षणात् दृष्टात् साधनान् साध्यज्ञानं स्वार्थानुमानमिति । अस्मिन्ननुमाने प्रमाता पूर्वोक्त पद्धत्या परोपदेशमनपेक्ष्यव साधनात् साध्य समभावं निश्चिनोति । यथा पर्वतोऽयं धूमवत्वादग्निमानिति, अत्र स्वमेव कस्यचित्प्रबुद्धस्य पुरुषस्य महानसादौ भूयो भूयो वह्नि धूमयोः सहचार दर्शनेन धुमे वह्नि व्याप्त्यवधारणानन्तरं पर्वताली गतस्य भूमनचनः भूमी अतिव्यापया दृप्येवं महानसादो अनुभूत व्याप्तिस्मरणानन्तरं "पर्वतोऽयं वह्निमान धुमबत्तात्' इत्याकारिकाया अनुमितिजविते तस्याः कारणीभुतं स्वयमेव साध्याबिनाभावित्वेन निश्चितं लिंग ज्ञानमेव । इदमेव स्वार्थानुमान मतिपरस्मै-कुशाग्र बुद्धि शालिने शिष्यान इदम् स्वार्थानुमानाभिधानं परार्थानुमानमिति', बाद कालापेक्षयतच्चानुमान द्व यंगमेव प्रतिपाद्यानुरोधतोऽधिकांवमपि वीतराग कथा काले स्वार्थानुमानमपि द्वयङ्गमेव । प्रतिज्ञादि भेदादनुमानरांगसंपत्तिः पञ्चविधा प्रोक्ता सा बालव्युत्पत्त्यर्थमेव ।
सूत्रार्थ-स्वार्थानुमान और परार्थानुमान के भेद से अनुमान दो प्रकार का है ॥ १२ ॥
हिन्दी व्याख्या--जिस ने पहिले तर्क प्रमाण से माध्य और साधन का साहचर्य सम्बन्ध निश्चित कर लिया है, ऐसा वह व्यक्ति जब पर्वतादि में धूम को देखता है, तब उसे तर्कानुभूत ब्याप्ति का स्मरण आता है, और उससे सहकृत उस साध्याविनाभावी एक लक्षण बाले हष्ट धूमादि रूप लिंग से साधन से वह अग्यादि रूप साध्य के वहाँ होने का अनुमान करता है। बस, इसी का नाम स्वार्थानुमान है। इस अनुमान में अनुमाता पूर्वोक्त पद्धति के द्वारा ही गुर्वादिक के साध्य-साधन की व्याप्ति प्रदर्शक उपदेश की अपेक्षा बिना साध्याविनाभावी लिंग की सहायता से साध्य के सद्भाव का निश्चय कर लेता है । जैसेधूम होने से यह पर्वत अग्निवाला है। ऐसा यह स्वार्थानुमान किसी-किसी प्रबुद्ध पुरुष को ही होता है। क्योंकि जब वह महानस-रसोईघर आदि में अग्नि और धूम को साथ-साथ रहा हुआ देखता है, तो वह धूम के साथ बलि-अग्नि-की व्याप्ति का अबधारण कर लेता है फिर जब वह कहीं पर्वतादि की तरफ जाता है तो वहाँ ऊपर की ओर उठते हुए वूम को देखते ही वह महानसादि में पूर्व में अनुभूत व्याप्ति का स्मरण करता है और उसी समय वह्नि व्याप्य धुम यहाँ पर है, इस प्रकार की अनुमिति उसे हो जाती है । अब विचार तो यह करना है कि इस प्रकार की जो उसे अनुमिति हुई है उसका कारणभूत उसके द्वारा स्वयं साध्य के साथ अविनाभाब सम्बन्ध रूप से निश्चित किया गया लिंग ज्ञान ही है । यही स्वार्थानुमान है । स्वार्थानुमान का अभिधान करने वाला जो वचन है वह परार्थानुमान है । तात्पर्य इसका यह है-मान लो देवदत्त को धूम देखने से अग्नि का स्वार्थानुमान हुआ । अव बह अपने इस स्वार्थानुमान को यज्ञदत्त को समझाने के लिये उससे ऐसा कहता है-यज्ञदत्त ! देखो, जहाँ-जहाँ अनवच्छिन्न धारा वाला धूम होता है, वहाँ-वहाँ नियम से अग्नि होती है । इस पर्वत में धूम है अतः यहाँ पर अग्नि है। इस तरह के स्वार्थानुमान के प्रतिपादक ये वाक्य यज्ञदत्त को होने वाले परार्थानुमान के प्रति कारण होते हैं । अतः
१. परोपदेशाभावेऽपि साधनात्साध्यबोधनम् । __ यद्दष्टुर्जायते स्वार्थमनुमानं तदुच्यते ॥ १ ॥ न्यायदीपिका . . २. स्व निश्चय वदन्येषां निश्वयोत्पादनं बुधः।।
परार्थ मानमात्यात वाक्यं तदुपचारतः ।। १० ।-न्यायावतार
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